पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४१०

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१९३३ ] नियम-विरुद्ध प्रव्राजनीय दण्ड [ ३५१ वहाँसे मैं भगवान् ! आ रहा हूँ।" तब भगवान्ने इसी संबंधमें इसी प्रकरणमें भिक्षु संघको एकत्रित कर भिक्षुओंसे पूछा- "सचमुच भिक्षुओ! अश्व जि त् और पुनर्वसु (दो) निर्लज्ज, पापी भिक्षु ० ? नाना प्रकारके अनाचारको करते हैं ? और जो मनुष्य पहले श्रद्धालु प्रसन्न थे वह भी अब अश्रद्धालु अप्रसन्न हैं । अच्छे भिक्षु छोळ जाते हैं, पापी भिक्षु वास करते हैं।" बुद्ध भगवान्ने फटकारा-० नाना प्रकारके अनाचार करते हैं !! भिक्षुओ! यह न अप्रसन्नोंको प्रसन्न करनेके लिये है ।" फटकारकर भगवान्ने धार्मिक कथा कह सा रि पुत्र और मोग्ग ला न को संबोधित किया- "जाओ सा रि पुत्र! तुम (और मोग्ग ला न) । की टा गिरि में जा अश्व जि त् और पुनर्वसु भिक्षुओंका की टा गिरि से प्र वा ज नी य कर्म (=निकालनेका दंड) करो। वे तुम्हारे स द्धि वि हा री (=शिष्य) थे।" 81 "भन्ते ! कैसे हम अ श्व जित् और पुनर्वसु भिक्षुओंका की टा गि रि से प्रवजित कर्म करें? वे भिक्षु चंड हैं, परुष (=कठोर) हैं।" "तो सारिपुत्र (मोग्गलान) तुम बहुतसे भिक्षुओंके साथ जाओ!" "अच्छा भन्ते !" (कह) सारिपुत्रने भगवान्का उत्तर दिया। (२) दण्ड देनेको विधि "और भिक्षुओ ! ऐसे प्रव्राजनीय कर्म करना चाहिये-पहले अश्व जि त् पुनर्वसु भिक्षुओंको प्रेरित करना चाहिये ; प्रेरित करके स्मरण दिलाना चाहिये; स्मरण दिलाकर आ पत्ति का आरोप करना चाहिये। आपत्तिका आरोप कर चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- "क. जप्ति—'भन्ते ! संघ मेरी सुने ! ये अश्व जि त् और पुन र्व सु भिक्षु कुल-दूषक (और) पापाचारी हैं। इनके पापाचार देखे भी जाते हैं, सुने भी जाते हैं, और इनके द्वारा कुल दूषित हुए देखे भी जाते हैं, सुने भी जाते हैं। यदि संघ उचित समझे तो संघ–'अश्व जित् और पुनर्वसु भिक्षुओंको की टा गिरि में नहीं वास करना चाहिये'--(कह) अ श्व जि त् और पुनर्वसु भिक्षुओंका की टा गि रि- से प्रवाजनीय कर्म करे। --यह सूचना है। "ख. अनुथा व ण (१) 'भन्ते ; संघ मेरी सुने ! यह अश्व जि त् और पुनर्वसु भिक्षु कुलदूपक और पापाचारी हैं। संघ--'अश्वजित् और पुनर्वसु भिक्षुओंको कीटागिरिमें नहीं वास करना चाहिये' (कह) अश्वजित् और पुन र्व सु का प्रव्राजनीय कर्म करता है। जिस आयुष्मान्को ० अश्वजित् और पुनर्वसु भिक्षुओंका प्रदाजनीय कर्म करना पसंद है वह चुप रहे, जिसको ० नहीं पसंद है वह "(२) 'दूसरी बार भी। "(३) 'तीसरी वार भी । "ग. धा र णा-संघने-'अश्वजित् और पुनर्वसु भिक्षुओंको कीटागिरिमें नहीं वास करना चाहिये' (कह) अश्वजित और पुनर्वसुका कीटागिरिसे प्रब्राजनीय कर्म कर दिया। संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इन समझता हूँ।" 82 बोले। (३) नियम-विरुद्ध प्रजाजनीय दण्ड --"भिक्षुओ! तीन बातोंसे युक्त प्रदाजनीय कर्म, अधर्म कर्म (कहा जाता) है-(१) सामने नहीं किया गया होता; (२) बिना पूछे किया गया होता है; (३) विना प्रतिज्ञा (=स्वीकृति)