३५४ ] १४-चुल्लवग्ग [ १९४१ तब आयुष्मान् सुधर्म--'पहले यह चित्र गृहपति संघ-गण या व्यतिको निमंत्रित करनेकी इच्छा होनेपर विना मुझसे पूछे.. नहीं निमंत्रित करता था, सो आज (मुझे) बिना पूछे (इसने) स्थविर भिक्षुओंको निमंत्रित किया । अब यह चित्र गृहपति मेरे प्रति विकार युक्त वे परवाह (और) विरक्त सा है'--(सोच) चित्र गृहपतिसे यह कहा- "नहीं गृहपति ! मैं नहीं स्वीकार करता।" दूसरी वार भी० तीसरी बार भी चित्र गृहपतिने आयुष्मान् सुधर्मसे यह कहा-० । तव चित्र गृहपति-'आयुष्मान् सुधर्म स्वीकार करके या न स्वीकार करके मेरा क्या करेंगे' (सोच) आयुष्मान् सुधर्मको अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चला गया । तव चित्र गृहपतिने उस रातके बीत जानेपर स्थविर भिक्षुओंके लिये उत्तम खाद्य-भोज्य तैयार किया । तव आयुष्मान् सुधर्म-'आओ! स्थविर भिक्षुओंके लिये चित्र गृहपतिकी तैयारी देखें', (सोच) पूर्वाह्नमें (वस्त्र) पहिन, पात्र-चीवर ले, जहाँ चित्र गृहपतिका घर था वहाँ गये । जाकर बिछे आसन पर वैठे । तब चित्र गृहपति जहाँ आयुष्मान सुधर्म थे वहाँ गया । जाकर आयुष्मान् सुधर्मको अभिवादन कर एक ओर बैठा। एक ओर बैठे चित्र गृहपतिको आयुष्मान् सु धर्म ने यह कहा- "गृहपति ! तूने यह बहुत सा खाद्य-भोज्य तैयार किया है, किन्तु एक ति ल - सं गु लि का (=तिलवा) नहीं है।" "भन्ते ! बुद्ध-वचनमें बहुत रत्नोंके रहते हुए भी आर्य सु धर्म को यह ति ल - मं गु लि का ही भापण करनेको मिली। भन्ते ! पूर्वकालमें दक्षिणापथ (=Deccan) के व्यापारी पूर्वदेशमें व्यापारके लिये गये। वे वहाँसे (एक) मुर्गी लाये। तब भन्ते ! उस मुर्गीने कौएके साथ सहवास किया। और वच्चा पैदा किया। जव भन्ते ! वह मुर्गीका बच्चा कौएकी बोली बोलना चाहता था तो 'काक-काकुट' वोलता था; जव मुर्गेकी बोली वोलना चाहता था तो 'कुवकुट-काक' बोलता था। ऐसे ही भन्ते ! बुद्ध-वचनमें बहुत रत्नोंके रहते हुए भी आर्य सु धर्म को यह तिल-संगुलिका ही भापण करनेको मिली ! "गृहपति ! तू मेरी निंदा करता है, मेग परिहास करता है।' गृहपति ! (ले) यह तेरा आवाम है मैं जाता हूँ।" "भन्ते ! मैं आर्य सुधर्मकी निंदा नहीं करता, परिहास नहीं करता । भन्ते ! आर्य सुधर्म म च्छि का- मंड में वास करें, अम्बा ट क वन मुन्दर है । मैं आर्य सुधर्मके चीवर, भोजन, आसन, रोगि-गश्य, गेगि- औषध-मामानका प्रवन्ध काँगा।" दूसरी वार भी आयुप्मान सु धर्म ने छ । नीसरी बार भी आयुप्मान् मुधर्मने चि व गृहपतिमे यह कहा-- "गृहपति ! तू मेरी निंदा करता है।" "भन्ते ! आर्य सु धर्म कहाँ जायँगे?" "गृहपति ! भगवान्के दर्शनके लिये श्रावनी जाऊंगा।" "तो भन्ले ! जो आपने कहा, और जो मैंने कहा वह मब भगवान ने कहना। आरचर्य नही भन्न ! कि आर्य सु धर्म फिर मच्छि का मं ड में बापम आयें।" तब आयुष्मान नु धर्म आमन-वामन मंभाल पात्र-चीवर ने जिधर श्रावस्ती है उधर कर दिये। अमनः जहाँ श्रा व म्नी में अनाथपिदिक का आगमन व न था और जहां भगवान् ५ वटा गये। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठे। एक ओर बेटे आयुष्मान् मृधर्मन जो कुछ पाने का था और कुछ चित्र गृह पति ने वहा था वह मन भगवान्ने कर दिया । !
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