पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७५१६ ] दंडित व्यक्तिके कर्तव्य [ ३५९ (४) नियमानुसार उत्क्षपणोय कर्म १--"भिक्षुओ! तीन वातोंसे युक्त ०उत्क्षेपणीय कर्म, धर्मकर्म० (कहा जाता) है-- (१) सामने किया गया होता है; (२) पूछकर किया गया होता है; (३) प्रतिज्ञा (=स्वीकृति कराके किया गया होता है। ०१ ।" 199 बारह धर्म कर्म समाप्त (५) उत्क्षेपणीय दंड देने योग्य व्यक्ति १--"भिक्षुओ! तीन बातोंसे युक्त भिक्षुको चाहनेपर (=आकंखमान) संघ आपत्ति न देखनेके लिये उत्क्षेपणीय कर्म करे-०२" 205 छः आकरण मान समाप्त (६) दंडित व्यक्तिके कर्तव्य "भिक्षुओ! जिस भिक्षुका आपत्ति न देखनेके लिये उत्क्षेपणीय कर्म किया गया है, उसे ठीकसे वर्ताव करना चाहिये । और वह ठीकसे वर्ताव यह है-(१) उपसम्पदा न देनी चाहिये; ०२ (१०) कर्मिक (=फैसला करनेवालों) की निन्दा नहीं करनी चाहिये; (११) प्रकृतात्म (=अदंडित) भिक्षुसे अभिवादन; (१२) प्रत्युत्थान; (१३) हाथ जोळना; (१४) सामीचि कर्म (=यथायोग्य वर्तना); (१५) आसन ले आना; (१६) शय्या ले आना; (१७) पादोदक; (१८) पादपीठ; (१९) पादकठलिक; (२०) पात्र-चीवर ले आना; (२१) स्नान करते वक्त पीठ मलना (इन कामों को लेना) चाहिये; (२२) प्रकृतात्म भिक्षुको शील-भ्रष्ट होनेका दोष नहीं लगाना चाहिये; (२३) आचार-भ्रष्ट होनेका दोष नहीं लगाना चाहिये; (२४) बुरी-जीविका-होने-वालेका दोष नहीं लगाना चाहिये; (२५) भिक्षु-भिक्षुमें फूट नहीं डालनी चाहिये; (२६) न गृहस्थोंकी ध्वजा (=वेष) धारण करनी चाहिये; (२७) न ती थि कों की ध्वजा (=वेष) धारण करनी चाहिये; (२८) न ती थि कों का सेवन करना चाहिये; (२९) भिक्षुओंका सेवन करना चाहिये; (३०) भिक्षुओंकी शिक्षा (=नियम) सीखनी चाहिये; (३१) प्रकृतात्म (=अदंडित) भिक्षुके साथ एक छतवाले आवासमें नहीं वास करना चाहिये; (३२) एक छतवाले अनावास (=भिक्षुओंके निवास स्थान से भिन्न घर) में नहीं रहना चाहिये; (३३) एक छतवाले आवास या अनावासमें नहीं रहना चाहिये; (३४) प्रकृतात्म भिक्षुको देखकर आसनसे उठ जाना चाहिये'; (३५) प्रकृतात्म भिक्षुकों भीतर या वाहरसे नाराज़ न करना चाहिये ; (३६) प्रकृतात्म भिक्षुके उपोसथको स्थगित नहीं करना चाहिये। (३७) प्रवारणा स्थगित नहीं करनी चाहिये; (३८) वात वोलने लायक (काम) नहीं करना चाहिये ; (३९) अनुवाद (=शिकायत) को नहीं प्रस्थापित करना चाहिये; (४०) अवकाश नहीं कराना चाहिये; (४१) प्रेरणा नहीं करनी चाहिये; (४२) स्मरण नहीं कराना चाहिये ; (४३) भिक्षुओंके माथ सम्प्रयोग (=मिश्रण) नहीं करना चाहिये।" 206 तब मंघने आपत्ति न देखनेके लिये छन्न भिक्षुका संघके साथ सहभोग न होने लायक उत्क्षेपणीय कर्म किया। वह संघ द्वारा आपत्ति न देखनेके लिये० उत्क्षेपणीय कर्म किये जानेपर उस आवासको छोळ दूसरे आवासमें चला गया । वहाँ भिक्षुओंने न उसका अभिवादन किया, न प्रत्युत्थान किया, न हाथ जोळा, न सामीचि कर्म (=कुशल-प्रश्न पूछना) किया, न सत्कार = गुरकार किया, न सम्मान "देखो पृष्ठ ३४३ । २देखो पृष्ठ ३४४ ।