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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४२५

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o 14 ४-चुल्लवग्ग [ १९७९ भन्ते ! मैं संघ द्वारा० उत्क्षेपणी य क र्म से दंडित हो ठीकसे बर्तता हूँ, लोम गिराता हूँ, निस्तारके (कामको) करता हूँ, ० उत्क्षेपणीय कर्मसे माफ़ी माँगता हूँ। दूसरी बार भी० । तीसरी बार भी- भन्ते! उत्क्षेपणीय कर्मसे माफ़ी चाहता हूँ।' "(तव) चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- "क. ज्ञ प्ति-'भन्ते ! संघ मेरी सुने, यह अमुक भिक्षु संघ द्वारा ० उत्क्षेपणीय-कर्मसे दंडित हो ठीकसे बर्तता है० उत्क्षेपणीय-कर्मसे माफ़ी चाहता है। यदि संघ उचित समझे तो, संघ अरिष्ट भिक्षुके ० उत्क्षेपणीय - कर्मको माफ़ करे-यह सू च ना है।' "ख. अनु श्रावण (१) 'पूज्यसंघ मेरी सुने ।' "ग. धा र णा-~-'संघने इस नामवाले भिक्षुके बुरी धारणा न छोड़नेसे किये गये० उत्क्षेपणीय कर्मको माफ़ कर दिया । संघको पसन्द है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ 432 बुरी धारणा न छोळनेसे उत्क्षेपणीय कर्म समाप्त कम्मक्खन्धक समाप्त ॥११॥ 9 1" 'देखो चुल्ल १९११९. पृष्ठ ३४६ "तर्जनीय कर्म" के स्थानमें "युरीधारणा न छोळने मे उत्क्षेपणीय कर्म" तया "पंडुक" और "लो हि त क" भिक्षओंके स्थानमें "अमुक" नाम वाला भिक्ष करके पढ़ना चाहिये।