पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३७८ ] ४-चुल्लवग्ग [ ३११ "और भिक्षुओ! इस प्रकार प्रथमकी आपत्तिके लिये समवधान परिवास देना चाहिये--०।" (३) फिर उसी आपत्ति के लिये मूलसे-प्रतिकपण दे समवधान-परिवास उसने परिवास पूरा कर मानत्त्वके योग्य होनेपर बीच में ० पाँच दिनकी सुक्रत्यागकी एक प्रतिच्छन्न आपत्ति की । भिक्षुओंसे कहा-- ० संघने (क) ० पक्षभरका परिवास दिया। ० (ख) मूलसे प्रतिकर्पणकर प्रथमकी आपत्तिके लिये समवधान-परिवास दिया। परिवास पूराकर मानत्त्वके योग्य होनेपर बीचमें मैंने पाँच दिनकी शुक्रत्यागकी एक प्रतिच्छन्न आपत्ति की। अब मुझे क्या करना चाहिये ?' ०!-- "तो भिक्षुओ! संघ उदायी भिक्षुको, बीचकी ० पाँच दिनकी प्रतिच्छन्न शुत्रत्यागकी आपत्तिके लिये मूलसे प्रतिकर्पणकर प्रथमकी आपत्तिके लिये समबधान-परिवास दे। और इस प्रकार ० मूलसे प्रतिकर्पण करना चाहिये-०२। और इस प्रकार समवधान-परिवास देना चाहिये--०३।" IS (४) फिर वही दोषकरनेके लिये समवधान-परिवास दे - 'रातका मानत्त्व उसने मानत्त्वको पूरा करते समय वीचमें ०पाँच दिनके प्रतिच्छन्न शुक्रत्यागकी आपत्ति की।०।- "तो भिक्षुओ! संघ उदायी भिक्षुको ० मूलमे प्रतिकर्पणकर, प्रथमकी आपत्तिके लिये समवधान- परिवास दे, छ रातका मानत्त्व ० । 16 "और भिक्षुओ! इस प्रकार ० मूलसे प्रतिकर्पण करना चाहिये--० २ १ ० इस प्रकार समवधान- परिवास देना चाहिये । ० इस प्रकार छः रातका मानत्त्व देना चाहिये-~०३ ।" (५) फिर वही दाप न करनेके लिये मूलस-प्रतिकर्पणकर, समवधान-परिवास दे छ रातका मानत्व उसने मानत्त्व पूराकर आह्वानके योग्य होनेपर वीचमें • पाँच दिनकी प्रतिच्छन्न शुक्रत्यागकी आपत्ति की। ०।- "तो भिक्षुओ! संघ उदायी भिक्षुको ० मूलसे प्रतिकर्पणकर, प्रश्रमकी आपत्तिके लिये गमवधान परिवास दे, छ रातका मानत्त्व दे। 17 "और भिक्षुओ ! इन कार ० मूलगे प्रतिकर्पण करना चाहिये--०३ । ० इस प्रकार ममवधान- परिवास देना चाहिये-०३ । ० इस प्रकार छ रातका मानत्त्व देना चाहिये-०३।" उसने मानत्त्व पूराकर भिक्षुओंने कहा- (६) मानत्त्व पूरा करनेपर अाह्वान "मैने आयुसो ! ० एक आपत्ति की। ० मंधने (क) पक्षनरका परिवाम दिया। • गंधने (ख) मूलसे प्रतिकर्पणकर समवधान-परिदार दिया । ० मंधने (ग) मुलगे प्रतिकर्षणकर ममवधान-गरि पाग दिया। ० संघने (E) मूलसे प्रतिकर्षणकर, ० समवधान-परिवाम दे, छ गतका मानन्य दिया। संघने (ङ) मुलने प्रतिक्रर्पणकर, ० ममवधान-परिवान दे, ० छ गतका मानन्य दिया। गो मैने मानत्य पूरा कर लिया, (अव) मुझे क्या करना चाहिये ?" भगवान्ने यह बात कही।- 'ममवधान १ देखो चुल्ल ३६११क, पृष्ट ३७२-३ ('छ रालवाला मानव' के स्थानपर परिवास' रखकर)। देखो चुल्ल ३६१ क-1, ८ पृष्ठ ३७३-७ (याचनामें पाँवों बारको आपनियोंको जोड़कर)। ३ देखो ऊपर।