पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४३८

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३२११ ] परिवास-दंड [ ३७९ "तो भिक्षुओ! संघ उदायी भिक्षुका आह्वान करे। 18 "और भिक्षुओ! इस प्रकार आह्वान करना चाहिये- "ग. धा र णा-'संघने उदायी शिक्षुका ० आह्वान कर दिया। संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।" शुक्र-त्याग समाप्त 5२-परिवास दंड दिनकी०, । (१) अनेक दिनोंके छिपानेसे बहुतसे संघादिसेसके दोषोंमें, छिपाये दिनके अनुसार-परिवास क. १-उस समय एक भिक्षुने संघा दि से सों की बहुतसी आपत्तियाँ की थीं--(जिनमेंसे) एक आपत्ति एक दिनकी प्रतिच्छन्न थी, एक आपत्ति दो दिनकी०, एक आपत्ति तीन दिनकी०, एक आपत्ति चार दिनकी०, एक आपत्ति पाँच दिनकी०, एक आपत्ति छ दिनकी०, ० सात दिनकी०, ० आठ ० नौ दिनको०, (और) एक आपत्ति दस दिनकी प्रतिच्छन्न थी। उसने भिक्षुओंसे कहा- "आवुसो ! मैंने बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियां की हैं--(जिनमेमे) एक आपत्ति एक दिनकी प्रतिच्छन्न है, ०, (और) एक आपत्ति दस-दस दिनकी प्रतिच्छन्न है । मुझे कैसा करना चाहिये?" भगवान्ले यह बात कही "तो भिक्षुओ! नंब उस भिक्षुको, उन आपत्तियोंमें जो आपत्ति दस दिनकी प्रतिच्छन्न है, उसके योग्य स म व धान - परिवा स दे। 19 "और भिक्षुओ! इस प्रकार (परिवास) देना चाहिये --उस भिक्षुको संघके पास जा • ऐसा 'कहना चाहिये--c जो आपत्ति दस दिनकी प्रतिच्छन्न है, उसके योग्य समवधान-परिवास माँगता हूँ। दूसरी बार भी ० । तीसरी बार भी० । (तव) चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- "धा र णा-'नंघने अमुक नामवाले भिक्षुको, उन आपत्तियोंमें जो दस दिनकी प्रतिच्छन्न आपत्ति है, उनके योग्य समवधान-परिवास दे दिया। संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं (इसे) समझता हूँ।" -~~-उस समय एक भिक्षुने संघा दि से सों की बहुतसी आपत्तियाँ की थीं-(जिनमेसे) एक आपनि एक दिनकी प्रतिच्छन्न थी, दो आपत्तियाँ दो दिनकी प्रतिच्छन्न थीं, तीन आपत्तियाँ तीन दिनकी०, चार आपनियां चार दिनयी०, पांच आपत्तियाँ पाँच दिनकी०, छ आपत्तियाँ छ दिनकी०, सात आपत्तियाँ मात दिनकी०, आठ आपत्नियाँ आय दिनकील, नौ आपत्तियाँ नौ दिनकी०, (और) दस आपत्तियाँ दल दिनकी प्रतिच्छन्न थीं। उनने भिक्षुओंसे कहा- नगवान्ने यह बात कही।- "तो भिक्षुओ! नंध, दन (निक्षुकी) आपत्तियोंमें जो सबसे अधिक देर तक प्रतिच्छन्न रही है. उनके योग्य समवधान-पान्दाम दे। 20 "और भिक्षुओ! इन प्रकार (परिवान) देना चाहिये-० समवधान-परिवास मांगता हूँ।०१० संघको सूचित करे-०२।" २ , 'देखो चल्लम, पृष्ठ ३७२-३ ।

  • देखो मुल्ल ६१ क, पृष्ठ ३७२-३ ('रातदाला मानत्त्व'को जगहपर 'समवधान-

परिधान पहना चाहिये)।