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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४४४

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मूलसे प्रतिकर्षण १ ३०४।क१ ] [ ३८५ (१५) "० आपत्तिके प्रतिकार न करनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये०१ 156 (१६) "० बुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये०१ ।"57 (३) मानत्व (१७) "भिक्षुओ ! यदि कोई भिक्षु मानत्त्वके योग्य हो भिक्षु-वेष छोळ चला जाये और वह फिर आकर उपसम्पदा लेना चाहे ।० भिक्षु-वेष छोळ गयेको मानत्त्व नहीं। यदि वह फिर उपसम्पदा लेना चाहे, तो उसके लिये वही पहिला परिवास हो । पहिलेका दिया परिवास ठीक है, जितना परिवास पूरा हो गया वह (भी) ठीक है । उस भिक्षुको मानत्त्व देना चाहिये । 59 (२४) "० बुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये० ३।" 60 (४) मानत्त्वचरण (२५) “भिक्षुओ ! यदि कोई भिक्षु मा न त्व का आचरण करते भिक्षु-वेप छोळ चला जाये; ०। 67 (३२) "० बुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये० ।" 68 (५) आह्वान (33) "भिक्षुओ ! यदि कोई भिक्षु आह्वानके योग्य हो भिक्षु-वेष छोळ चला जाये; ०२ 169 (४०) “० बुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये०३ ।" 76 चौवालीस समाप्त । ४-दंड भोगते समय नये अपराध करने पर दंड क. परिवास- (१) मूलसे-प्रतिकर्पण (१) “यदि भिक्षुओ ! एक भिक्षु परिवास करते समय वीचमें अ-प्रतिच्छन्न परिमाण- वाली बहुतसी सं घा दि से स की आपत्तियाँ करे, तो उस भिक्षुका मूलसे-प्रतिकर्षण करना चाहिये।" 77 (२) "० प्रतिच्छन्न (और) परिमाणवाली बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियाँ करे, तो उस भिभुवा मूलसे प्रतिवर्पण करना चाहिये, प्रतिच्छन्नोंके आपत्तियोंके अनुसार प्रथम आपत्तिके लिये स म व धा न प रि वा स देना चाहिये । 78 (३) "० प्रतिच्छन्न या अ-प्रतिच्छन्न (किन्तु) परिमाणवाली वहुतसी संघादिसेसकी आपनियां करे, तो उस भिक्षुका मूलसे-प्रतिकर्पण करना चाहिये, ०४ । 79 ( ४ ) "० अ-प्रतिच्छन्न (और) अ-परिमाण०५ 180 • अपरिमाण (और) प्रतिच्छन्न० 18I (६) अपरिमाण, प्रतिच्छन्न भी अ-प्रतिच्छन्न भी०५ 182 ( ५ ) "० परिमाणवाली भी अ-परिमाण भी (किन्तु) अप्रतिच्छन्न०५ 1 83 (८) • परिमाणवाली भी अ-परिमाण भी (किन्तु) प्रतिच्छन्न०५ । 84 (९) "० परिमाणवाली नी, अ-परिमाण भी, प्रतिच्छन्न भी, अप्रतिच्छन्न भी०५।" 85 1 o २ ऊपर (१) की भाँति । देखो ऊपर (३) मानत्त्व । ऊपर आये मूलसे-प्रतिकर्षणकी भांति । ४ दोषको छिपाना। ५ देखो ऊपर (१)।