पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४४६

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मूलसे प्रतिकर्षण 1 ३९४।क१ ] [ ३८५ (१५) "० आपत्तिके प्रतिकार न करनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये०१ । 56 वुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये०१ ।"57 (३) मानत्व (१७) "भिक्षुओ ! यदि कोई भिक्षु मानत्त्वके योग्य हो भिक्षु-वेष छोळ चला जाये और वह फिर आकर उपसम्पदा लेना चाहे । भिक्षु-वेष छोळ गयेको मानत्त्व नहीं। यदि वह फिर उपसम्पदा लेना चाहे, तो उसके लिये वही पहिला परिवास हो। पहिलेका दिया परिवास ठीक है, जितना परिवास पूरा हो गया वह (भी) ठीक है। उसं भिक्षुको मानत्त्व देना चाहिये । 59 (२४) "० वुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये०२।" 60 (४) मानत्त्वचरण (२५) “भिक्षुओ ! यदि कोई भिक्षु मा न त्त्व का आचरण करते भिक्षु-वेप छोळ चला जाये; ०। 67 (३२) ". बुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये० ।" 68 (५) आह्वान (३३) "भिक्षुओ! यदि कोई भिक्षु आह्वानके योग्य हो भिक्षु-वेष छोळ चला जाये; ०२ 169 (४०) "० बुरी दृष्टिके न छोळनेसे उत्क्षिप्तक हो जाये०३ ।" 76 चौवालीस समाप्त ६४-दंड भोगते समय नये अपराध करने पर दंड क. परिवास- (१) मूलसे-प्रतिकर्षण (१) “यदि भिक्षुओ ! एक भिक्षु परिवास करते समय वीचमें अ-प्रतिच्छन्न परिमाण- वाली बहुतसी संघा दि से स की आपत्तियाँ करे, तो उस भिक्षुका मूलसे-प्रतिकर्पण करना चाहिये।" 77 (२) "० प्रतिच्छन्न (और) परिमाणवाली बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियाँ करे, तो उस भिक्षुका मूलसे प्रतिकर्पण करना चाहिये, प्रतिच्छन्नोंके आपत्तियोंके अनुसार प्रथम आपत्तिके लिये स म व धा न प रि वा स देना चाहिये । 78 (:) "० प्रतिच्छन्न या अ-प्रतिच्छन्न (किन्तु) परिमाणवाली बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियां करे, तो उस भिक्षुका मूलसे-प्रतिकर्पण करना चाहिये, ०४ ( ४ ) "० अ-प्रतिच्छन्न (और) अ-परिमाण०५ 180 • अपरिमाण (और) प्रतिच्छन्न०५। 81 (६) "० अपरिमाण, प्रतिच्छन्न भी अ-प्रतिच्छन्न भी०५ । 82 ( ७) ० परिमाणवाली भी अ-परिमाण भी (किन्तु) अप्रतिच्छन्न ०५ । 83 ( ८ ) " परिमाणवाली भी अ-परिमाण भी (किन्तु) प्रतिच्छन्न०५ । 84 (९) " परिमाणवाली भी, अ-परिमाण भी, प्रतिच्छन्न भी, अप्रतिच्छन्न भी०५।" 85 179 ऊपर (३) की भाँति । देखो उपर (६) मानत्त्व । ४५ २ ऊपर आये मूलसे-प्रतिकर्षणकी भांति । । दोषको छिपाना। ५ देखो ऊपर (१)।