पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४४८

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मानत्त्व ३०४।ख१] [ ३८७ (७) "० प्रतिच्छादन कर भी, अ-प्रतिच्छानद कर भी० । पहिले प्रतिच्छादित की गई आपत्तियों का अब भी प्रतिच्छादन करता है, पहिले अ-प्रतिच्छादित आपत्तियोंका अब भी प्रतिच्छादन नहीं करता । तो भिक्षुओ ! उस भिक्षुको पहिलेके भी और अवके भी आपत्ति-स्कंधमें प्रतिच्छादनकी भांति परिवास दे मानत्त्व देना चाहिये । 146 (८) "• छिपाकर भी, न छिपाकर भी० । पहिले छिपाई गई आपत्तियोंको भी अब छिपाता है, पहिले वे-छिपाई० को अब छिपाता है । ०१ परिवास दे मानत्त्व देना चाहिये। 147 ख. (९) "० भिक्षुओ! यदि एक भिक्षुने बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियां की हैं। (उनमें) किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंको जानता है, किन्हीं किन्हींको नहीं जानता । जिन आपत्तियोंको जानता है, उनको छिपाता है, जिन आपत्तियोंको नहीं जानता, उन्हें नहीं छिपाता। गृहस्थ बन फिर भिक्षु हो जिन आपत्तियोंको उसने पहिले जानकर छिपाया था, उन्हें अब वह जानकर नहीं छिपाता; जिन आपत्तियोंको पहिले न जान नहीं छिपाया था, उन्हें अब जानकर (भी) नहीं छिपाता । तो भिक्षुओ! उस भिक्षुको पहिलेके दोषसमूह (-आपत्ति-स्कंध) में छिपाईकी भाँतिके लिये परिवास दे मानत्त्व देना चाहिये । 148 (१०) "०२ जिन आपत्तियोंको जानता है, उनको छिपाता है, जिन आपत्तियोंको नहीं जानता, उनका छादन नहीं करता। फिर उपसम्पदा पा जिन आपत्तियोंको पहिले जानकर छादन करता था, अब जानकर उनका छादन नहीं करता; जिन आपत्तियोंको पहिले नहीं जानकर उनको नहीं छिपाता था, उन आपत्तियोंको अब जानकर छिपाता है। तो भिक्षुओ! उस भिक्षुको पहिलेके भी अवके भी आपत्ति-स्कंधोंमें प्रतिच्छन्न (=छिपाई)की भाँति परिवास दे मानत्त्व देना चाहिये । 149 (११) “०२ जिन आपत्तियोंको जानता है उन्हें छिपाता है, जिन आपत्तियोंको नहीं जानता उन्हें नहीं छिपाता । ० २ फिर उपसम्पदा पा जिन आपत्तियोंको पहिले जानकर छिपाता था, उन्हें अव (भी) जानकर छिपाता है, जिन आपत्तियोंको पहिले नहीं जान नहीं छिपाता था, उन्हें अव जानकर नहीं छिपाता। ०२ परिवास दे मानत्त्व देना चाहिये। 150 (१२) ".२ जिन आपत्तियोंको जानता है, उन्हें छिपाता है, जिन आपत्तियोंको नहीं जानता उन्हें नहीं छिपाता। ० २ फिर उपसम्पदा पा जिन आपत्तियोंको पहिले जानकर छिपाता था, उन्हें अव भी जानकर छिपाता है, जिन आपत्तियोंको पहिले न जानकर नहीं छिपाता था, उन्हें अव जानकर छिपाता है। परिवास दे मानत्त्व देना चाहिये । ISI ग. (१६) "०२ (उनमें) किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंको याद रखता है, और किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंको याद नहीं रखता। जिन आपत्तियोंको याद रखता है उनका छादन करता है, जिन आप- त्तियोंको नहीं याद रखता, उनका छादन नहीं करता। वह भिक्षु-वेप छोळ फिर भिक्षु वन, जिन आप- त्तियोंको उसने पहिले यादकर छिपाया था, उन्हें अब यादकर नहीं छिपाता; जिन आपत्तियोंको पहिले याद न होनेसे नहीं छिपाता था उन्हें अब यादकर भी नहीं छिपाता । तो भिक्षुओ ! उस भिक्षुको पहिले के आगनि-रबंध (=आपत्ति-मुंज) में छिपाईकी भांति के लिये परिवास दे मानत्त्व देना चाहिये । ० ३ 154 (१६) "०३ जिन आपत्तियोंको याद रखता है, उन्हें छिपाता है०" | I57 9 ऊपर जैना पाट। देखो ऊपर (९)। 'उपर (१०), (११) को भांति ("जानने"के. स्थानमें "याद करवा" रखकर)। देखो ऊपर (१२)।