पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४४९

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३८८ ] ४-चुल्लवग्ग [ ३१५।क? घ. (१७) "०१ उनमें किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंमें सन्देह नहीं रखता है, किन्हीं किन्हीं आप- त्तियोंमें सन्देह रखता है०१ । 158 (२०) "०१ जिन आपत्तियोंमें सन्देह नहीं रखता, उन्हें छियाता है० ।” 161 (२) श्रामणेर बन जाना क. (२१) "०२ श्रामणेर बन जाता है०२ (४०) "०२ जिन आपत्तियोंमें सन्देह नहीं रखता, उन्हें छिपाता है०२ ।" 181 (३) पागल हो जाना क. (४१) "०२ पागल हो जाता है० २।" IOI (४) विक्षिप्त-चित्त होना क. (६१) "०२ विक्षिप्त-चित्त हो जाता है०२ ।" (५) वेदनट्ट (=बदहवास) हो जाना क. (८१) "०२ वेदनट्ट हो जाता है०२ | 141 (१००) "०२ जिन आपत्तियोंमें सन्देह नहीं रखता, उन्हें छिपाता है०२।" 161 सौ मानत्त्व समाप्त I 21 5 ५-मूलसे-प्रतिकर्षण दण्डमें शुद्धि क. परिवास- (१) गृहस्थ होना क. (१) "भिक्षुओ! यदि एक भिक्षु परिवास करते समय बीचमें बहुतसी संघादिशेमकी आपत्तियोंको कर विना छिपाये, गृहस्थ हो जाता है । वह फिर भिक्षु बन (यदि) उन आपत्तियोंको नहीं छिपाता, तो उस भिक्षुको मूलसे प्रतिकर्पण करना चाहिये। 162 ( २ ) "०३ विना छिपाये गृहस्थ हो जाता है। वह फिर भिक्षु बन (यदि) उन आपत्तियोंको छिपाता है, तो उस भिक्षुको मूलसे प्रतिकर्पण करना चाहिये। इसकी छिपाई आपत्तियोंकी भाँति पहिलेकी आपत्तिके लिये समवधान-परिवास देना चाहिये । 163 ( ३ ) "०३ छिपाकर गृहस्थ हो जाता है। वह फिर भिक्षु वन (यदि) उन आपत्तियोंको नहीं छिपाता, तो ० । 164 ( ४ ) "०" छिपाकर गृहस्थ हो जाता है । वह फिर भिक्षु वन (यदि) उन आपत्तियोंको छिपाता है, तो०५ । 165 ख. ( ५ ) "०५ छिपाकर भी, बिना छिपाये भी गृहस्थ हो जाता है। वह फिर भिक्षु बन, पहिले छिपाई आपत्तियोंको अव नहीं छिपाता; पहिले नहीं छिपाई आपत्तियोंको अब नहीं छिपाता, तो०५1166 MY १ऊपर पष्ठ ३८७ (९-१२) की भाँति “जानने न जानने" के स्थानमें "न मन्देह करना, सन्देह करना" रख । देखो ऊपर पृष्ठ ३८७-८८ (१-२०) की भाँति । ऊपरकी तरह पाट। "देखो ऊपर (२)। "देखो ऊपर २ (५)।