पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४५०

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३०५।ख१] मूलसे-प्रतिकर्षण [ ३८९ (६) "०१ भिक्षु वन पहिले छिपाई आपत्तियोंको अब नहीं छिपाता, पहिले न छिपाई आपत्तियोंको अब छिपाता है, तो०२ । 167 (७) "०१ भिक्षु वन, पहिले छिपाई आपत्तियोंको अव (भी) छिपाता है, पहिले न छिपाई आपत्तियोंको अव (भी) नहीं छिपाता, तो०२। 168 (८) "०२ भिक्षु वन, पहिले छिपाई आपत्तियोंको अब (भी) छिपाता है, पहिले न छिपाई अपात्तियोंको अब छिपाता है, तो०२ ० । 169 ग. (९) "भिक्षुओ! यदि एक भिक्षु परिवास करते समय बीचमें बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियोंको करता है। (उनमें) किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंको जानता है किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंको नहीं जानता। जिन आपत्तियोंको जानता है उन्हें छिपाता है, जिन आपत्तियोंको नहीं जानता उन्हें छिपाता है । वह गृहस्थ वन फिर भिक्षु हो,जिन आपत्तियोंको वह पहिले जानकर छिपाता था, । तो०२। 170 (१०) "०३ परिवास करते समय०४ जिन आपत्तियोंको जानता है." 10 फिर भिक्षु हो, जिन आपत्तियोंको वह पहिले जानकर छिपाता था, ०२ । तो०५ | I7I (११) "० ३ परिवास करते समय ०३ जिन आपत्तियोंको जानता है ० " । ० फिर भिक्षु हो जिन आपत्तियोंको वह पहिले जानकर छिपाता था, ०५ । तो०५ । 172 (१२) "०३ परिवास करते समय० ३ जिन आपत्तियोंको जानता है०५।० फिर भिक्षु हो जिन आपत्तियोंको वह पहिले जानकर छिपाता था, ०६ । तो० ° । 173 घ. (१३) "० - उनमें किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंको याद रखता है, ङ. (१७-२०) "०१° उनमें किन्हीं किन्हीं आपत्तियोंमें सन्देह नहीं रखता, (२) श्रामणेर होना क. (१) “भिक्षुओ ! यदि एक भिक्षु परिवास करते समय बीचमें बहुतसी संघादिसेसकी आपत्तियोंको कर विना छिपाये गृहस्थ हो जाता है, ०१० ।" 192 (३) पागल होना क. (१-२०) "० पागल हो जाता है, ०१० ।" 209 (४) विक्षिप्त होना क. (१-२०) "० विक्षिप्त हो जाता है, ०१०।" 226 (५) वेदनट्ट होना क. (१-२०) "० वेदनट्ट हो जाता है, ०१० ।” 243 ख. मानत्त्व (१-१००)- (१) गृहस्थ होना (क) (१-३००) "भिक्षुओ! यदि एक भिक्षु मानत्त्वके योग्य हो वीचमें बहुतसी संघादि- o 1 174 १०।" 175 देिखो ऊपर पृष्ट ३८८ (२) । देखो पृष्ठ ३८२ (९)। देखो पृष्ठ ३८७ (१०)। 'देखो ऊपर (९)। देखो पृष्ठ ३८७ (१०)। 'देखो पृष्ठ ३८८ (१८) । 'देखो पट३८७ (१२) । ऊपर (९-१२) की भाँति ("जानने की जगह "याद करके" रखकर) । 'देखो ऊपर (९)। कपर (९-१२) की भाँति ("जानने" की जगह सन्देह न करना" रखकर)।