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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४६०

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४९२।१] स्मृति-विनय [ ३९९ "भन्ते! जन्मसे लेकर स्वप्नमें भी मैथुन-सेवन करनेको मैं नहीं जानता, जागतेकी वात ही क्या?" 93 14 तब भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया-- "तो भिक्षुओ! मेत्तिया भिक्षुणीको नष्ट कर दो (=भिक्षुणी-वेपसे निकाल दो), और इन भिक्षुओंपर अभियोग लगाओ।" 21


यह कह भगवान् आसनसे उठ विहारमें चले गये।

तब उन भिक्षुओंने मेत्तिया भिक्षुणीको नाश (=निकाल) दिया। तब मेत्तिय भुम्मजक भिक्षुओंने उन भिक्षुओंसे यह कहा- "आवुसो! मत मेत्तिया भिक्षुणीको निकालो, उसका कोई अपराध नहीं है ! कुपित असन्तुष्ट हो (दर्भ भिक्षुको) च्युत करानेके अभिप्रायसे हमने इसे उत्साहित किया।' "क्या आवुसो! तुमने आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्रपर निर्मूल ही दुराचारके दोषको लगाया?" "हाँ, आवुसो! जो वह भिक्षु अल्पेच्छ ० थे, वह हैरान ० होते थे--कैसे मेत्तिय भुम्मजक भिक्षु आयुष्मान् दर्भ मल्लपुत्रपर निर्मूल ही दुराचारके दोषको लगायेंगे !' तव उन भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही। "सचमुच भिक्षुओ ! ०?" “(हाँ) सचमुच भगवान् !" • फटवारकर भगवान्ने धार्मिक कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया--"तो भिक्षुओ! संघ दर्भ मल्लपुत्रको स्मृतिकी विपुलताको प्राप्त होनेने स्मृति - वि न य दे । 22 ख. स्मृति - वि न य--"और भिक्षुओ ! इस प्रकार (स्मृतिविनय) देना चाहिये-~-दर्भ मल्लपुत्र संघवे पास जा एक वांधे पर उत्तरा संगकर वृद्ध भिक्षुओंके चरणोंमें वन्दनाकर उकळू बैठ हाथ जोळ ऐसा कहे- " भन्ते ! यह मेत्तिय भुम्मजक भिक्षु मुझे निर्मूल दुराचारका दोप लगा रहे हैं । सो मैं भन्ते ! ग्मृतिकी विपुलतासे युक्त (हूँ, और) संघसे स्मृति वि न य माँगता हूँ। दूसरी बार भी ० । तीसरी बार भी--'भन्ते ! ० संघसे स्मृति विनय माँगता हूँ।' "तव चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- "क. नू च ना-'भन्ते ! संघ मेरी सुने-० । "ख. अनुश्रावण--- (१) 'भन्ते ! संघ मेरी सुने-~० । “(२) दूसरी बार भी 'भन्ते! संघ मेरी सुने-। “(३) तीसरी बार भी, 'भन्ते ! संघ मेरी नुने- "ग. धारणा-'संघने दिपुल स्मृतिने युक्त आयुप्मान् दर्भ मल्लपुत्रको स्मृति वि न य दे दिया। मंघको पसन्द है, इसलिये चुप है-ऐसा में इने समझता हूँ।' "भिक्षओ ! यह पांच धार्मिक (=नियमानुकूल) स्मृति वि न य के दान हैं-(१) भिक्षु गुल होता है : (: ) उनके अनुदाद (: वातकी पुष्टि) करनेवाले भी होते हैं; (३) वह (स्मृति- दिनय) मांगता है: (४) बने मंघ स्मृति-दिनय देता है : (और) (५) धर्म मे स म न हो (देता ई.)।" 'महाग १११ (प्ठ ३०६) ।