पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४७५

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४१४ ] ४-चुल्लवग [ ४४३५ है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।' "भिक्षुओ ! शलाकाग्रहापक भिक्षुको श ला का (=वोटदेनेकी लकड़ी) बाँटनी चाहिये ।' वहुमतवाले धर्मवादी भिक्षु जैसा कहें, वैसे उस अधिकरणको शांत करना चाहिये । भिक्षुओ! वह अधिकरण शांत कहा जाता है। किससे शांत ?--सं मुख वि न य से भी, और य द्भू य सि क से भी। क्या है वहाँ संमुख० विनय ? -०१ । (क्या है वहाँ यद्भूयसिका? )-जो कि बहुमत ( यद्यसिक) से कर्म (=मुकदमे) का करना, निर्धारण करना, प्राप्त करना,...स्वीकार करना, न परित्याग करना, यह वहाँ य द्भू य सि का है। भिक्षुओ! इस प्रकार शांत हो गये अधिकरणको (जो) कारकसे उभाळे उसे दुक्कोट नि क - पा चि त्ति य हो ।” 143 उस समय श्रा व स्ती में इस प्रकार उत्पन्न. . . (एक) अधिकरण था। तब श्रावस्तीके संबके अधिकरण-शमन (=फैसले) से असन्तुष्ट हुये उन भिक्षुओंने सुना—'अमुक आवास (=मठ) में बहुतसे वहुश्रुत०२ शिक्षाकाम स्थविर विहार करते हैं, यदि वह स्थविर धर्म , वि न य, शास्ताके शासनके अनुसार इस अधिकरणको शान्त करें, तो इस प्रकार यह अधिकरण अच्छी प्रकार शांत हो जायेगा। तव वह भिक्षु उस आवासमें जा उन स्थविरों (=बृद्धों) से यह बोले- "भन्ते ! यह अधिकरण इस प्रकार...उत्पन्न हुआ; अच्छा हो भन्ते ! (आप सब) स्थविर इस अधिकरणको धर्म ० से ऐसे शांत कर दें, जिसमें कि यह अधिकरण अच्छी प्रकार शांत हो जाये।" तव उन स्थविरोंने जैसा श्रावस्तीके संघने उस अधिकरणको शांत किया था, और जैसा कि अच्छी तरह फैसला होता; उसी तरह उस अधिकरणको शांत किया (=फैसला दिया)। तव श्रावस्तीके संघके फैसलेसे भी असन्तुष्ट, बहुतसे स्थविरोंके फैसलेसे भी असन्तुष्ट हुये उन भिक्षुओंने सुना—'अमुक आवासमें तीन बहुश्रुत० स्थविर विहार करते हैं ० । । तव श्रावस्तीके संघ०, बहुतसे स्थविरों०, (और) तीन स्थविरोंके फैसलेसे भी असन्तुष्ट हुये उन भिक्षुओंने सुना-'अमुक आवासमें दो बहुश्रुत ० स्थविर विहार करते हैं। ० । ० एक बहुश्रुत ० स्थविर विहार करते हैं। तव श्रावस्तीके संघ०, बहुतसे स्थविरों०, तीन०, दो०, (और) एक० स्थविरके फैसलेगे भी असंतुष्ट हो वह भिक्षु जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! यह अधिकरण निहत (-खतम) हो गया, शांत हो गया, अच्छी प्रकार गांत हो गया। 'भि क्षु ओ ! अनु म ति देता हूँ उ न भिक्षुओं की संज्ञ प्ति (=आगाही)से ती न (त र ह की) श ला का ओं की--(१) गूढ क (=छि पी), (२) का न में क ह ने के स हि त (=स क र्ण ज पक), और (३) वि वृत क (=खुली) । 144 I १--गू ढ क श ला का ग्रा ह—"भिक्षुओ! कैसे गूढक-शलाकाग्राह होता है ? उस श ला का ग्र हा प क भिक्षुको शलाकाएँ भिन्न रंगोंकी वना एक, एक भिक्षु के पास जाकर ऐसे कहना चाहिये- 'यह इस पक्षवालेकी शलाका है, यह इस पक्षकी शलाका है, जिसे चाहते हो उसे ग्रहण करो।' (उसके गलाका) ग्रहण कर लेनेपर कहना चाहिये-'मत किसीको दिखलाना' । यदि (वह) जाने कि अधर्म- वा दी बहुतर हैं, तो—'ठीकमे नहीं ग्रहण की गई'—(कह) लौटा लेना चाहिये। यदि जाने धनं वा दी बहुतर हैं, तो ठीकसे ग्रहण की गई-कहना (=अनुश्रावण करना) चाहिये। भिक्षुओ! इस प्रकार गूढ क शलाका-ग्राह होता है । 145 , ० । " 64 - १ चुल्ल ४९३।५ पृष्ठ ४०३ । चुल्ल पृष्ट ३१०।