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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४७७

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? 11 ? ४१६ ] ४-चुल्लवग्ग [ ४४३५ मैंने बहुतसे श्रमण-विरुद्ध कर्म किये...। मुझे वह याद नहीं, मैंने मूढ़ (=होशमें न हो) वह (काम) किये।' ऐसा कहनेपर भी चोदित करते ही थे—'याद है ० ।' भिक्षुओ! ऐसे आमूढ़ भिक्षुको अमूढ़- विनय देना चाहिये। १ IISI "घ. धा र णा-'संघने अमूढ़ होनेसे इस नामके भिक्षुको अ मूढ़ - वि न य दे दिया । संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा में धारणा करता हूँ।' "भिक्षुओ! यह अधिकरण शांत कहा जाता है। किससे शांत कहा जाता है ?--संमुख-विनयसे और अमूढ़-विनयसे । क्या है वहाँ संमुख-विनयमें ? ० २ । क्या है वहाँ अमूढ़-विनयमें ? -जो अमूढ़- विनयवाले कर्मकी क्रिया-करना ०, यह है वहाँ अमूढ़-विनयमें । ० ३ खी य न - पा त्रि त्ति य हो। 152 "(क्या किसी) अनुवाद-अधिकरणमें स्मृति-विनय और अमूढ़-विनयको छोळ (सिर्फ) संमुख- विनय और तत्पापीयसिक-विनय दो ही शमथ हो सकते हैं ? हो सकते हैं-कहना चाहिये। किस प्रकार?--जब भिक्षु (एक) भिक्षुपर संघके बीच गुरु क - आ पत्ति (=भारी अपराध) का आरोप कर चोदित करते हैं—'याद है, आयुष्मान् ! तुमने इस प्रकारकी गुरुक-आपत्ति की है,जैसे कि–पा रा जि क और पाराजिकके समीपकी?' फिर छुळानेका प्रयास करते उसको उनसे फिर घेरते पूछते हैं –'जरूर आवुस ! तुम ठीकसे ख्याल करो कि इस प्रकारकी गुरुक-आपत्ति तुमने की है ०?' वह ऐसा कहता है- 'आवुसो ! मुझे नहीं याद है, कि मैंने इस प्रकारकी गुरुक-आपत्तिकी है ० ? हाँ आवुसो ! मुझे याद है, कि मैंने छोटी सी आपत्तिकी।' छुळानेका प्रयास करते उसको फिर घेरते हैं-'जरूर ! आवुस ! तुम ठीकसे ख्याल करो, कि इस प्रकारकी गुरुक-आपत्ति तुमने की है० ?' वह ऐसा कहता है-~'आवुसो ! इस छोटी आपत्तिको मैंने करके इसे बिना पूछे भी मैं (जव) स्वीकार करता हूँ, तो क्या इस प्रकारको गुरुक-आपत्ति, जैसे कि पाराजिक या पाराजिकके समीपकी, करके पूछनेपर में स्वीकार न करूँगा?' वह ऐसा कहते हैं-'आवुस ! इस छोटी आपत्तिको तुमने करके, उसे बिना पूछे ही स्वीकार कर लिया, तो भला इस प्रकारकी गुरुक-आपत्ति ० करके पूछनेपर तुम स्वीकार न करोगे? जरूर ! आवुस ! तुम ठीकसे ख्याल करो, कि इस प्रकारकी गुरुक-आपत्तिको तुमने की है ० ?' वह ऐसा कहता है-'आवुमो ! मुझे याद है, मैंने इस प्रकारकी गुरुक-आपत्ति ० की है। दव (मस्ती) से मैंने यह कहा, रब (=गफलत) से मैंने यह कहा-' -'आवुसो ! मुझे नहीं याद है ० ।' तो भिक्षुओ! उस भिक्षुका तत्पापीयमिक कर्म करना चाहिये। 153 II त त्पा पी य सि क-"और भिक्षुओ! इस प्रकार (उसे) करना चाहिये। चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- "क. ज्ञ प्ति—'भन्ते ! संघ मेरी सुने, इस नामके इस भिक्षुने संघके बीच गुरुक-आपत्तिके बारे में पूछनेपर, इनकार करके स्वीकार किया, स्वीकार करके इन्कार किया, दूसरा इसका बहाना किया, जान बूझकर झूठ कहा। यदि संघ उचित समझे, तो संघ इस नामके भिक्षुका तत्पापीयसिक-कर्म करे- यह सूचना है। 81 ग. धा र णा-'संघने इस नामवाले भिक्षुका तत्पापीयसिक कर्म किया। संघको पसंद है, इसलिये चुप है—ऐसा मैं इसे धारण करता हूँ।' "भिक्षुओ! यह अधिकरण शांत कहा जाता है। किससे शांत ?--संमख-विनय और तत्तापीय १ देखो चुल्ल० ४६२।२ पृष्ठ ४०० । देखो चुल्ल० ४६३।५ (I) पृष्ठ ४१०-११ । "तीन अनुश्रावण भी पढ़ना चाहिये। देखो ऊपर।