पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४९५

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४३० ] ४-चुल्लवग [ ५७।२ (1 10 चढ़नेमें तकलीफ़ होती थी।- "०अनुमति देता हूँ तीन प्रकारकी सीढ़ियोंकी-ईटकी सीढ़ी, पत्यरकी सीढ़ी, लकळीकी सीढ़ीकी।" 104 चढ़ते समय गिर पळते थे।- "०अनुमति देता हूँ बाहीं (=आलम्बन वाह) की।" IOS उस समय भिक्षु टहलते वक्त गिर पळते थे। ०।- "०अनुमति देता हूँ, चंक्रमकी वेदीकी।" 106 उस समय भिक्षु चौळेमें टहलते सर्दी गर्मीसे तकलीफ़ पाते थे। ०।- "०अनुमति देता हूँ घेरकर (ओगुम्वेत्त्वा) लीपने पोतनेकी,सफ़ेद, काला, (या) गेरूसे रंगनेकी; माला, लता, मकरदन्त, पंचपटिका (=पाँच पाटीके चीवरके पाँस), चीवर टाँगनेके अर्गन (=बाँस- रस्सी) के बनानेकी ।" 107 जन्ताघर नीची कुर्सीका होता था, (वरसातमें) पानी लग जाता था। ०।- "०अनुमति देता हूँ ऊँची कुर्सीका करनेकी।" 108 चिनाई गिर पळती थी।- "०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर, और लकळी–तीन प्रकारकी चिनाईकी।" 109 चढ़ने में तकलीफ़ होती थी।- "०अनुमति देता हूँ तीन प्रकारकी सीढ़ियोंकी-ईंटकी सीढ़ी, पत्थरकी सीढ़ी (और) लकळी की सीढ़ीकी ।" IIO चढ़ते समय गिर पळते थे।- "०अनुमति देता हूँ वाँहींकी।" III जन्ताघरमें किवाळ न होता था ।- "०अनुमति देता हूँ किवाळ, पृष्ठ-संघाट (=बिलाई), उलूखल (=देहरी ), उत्तरपाशक (सद्दल), अर्गलवत्तिक (= कपाट), कपिसीसक (= खूटी), सूची (=कुंजी), घटिक (=ताला), ताल-छिद्र (=तालेका छिद्र), आविजनच्छिद्द (=रस्सीका छिद्र), आविजनरज्जु (=लटकन रस्सी)की।" 112 जन्तापरकी भीतकी जळ ग्वियाती (=घिसती) थी 10-- "०अनुमति देता हूँ मेंडरी बनानेकी ।” II3 जन्ताघरमें धूमनेत्र (=धुंआ निकालनेकी चिमनी) न था । ०।- "० अनुमति देता हूँ धुमनेत्रकी।" II4 उन ममय भिक्षु छोटे जन्ताघरके बीच में आगका स्थान भी बनाते थे। आने-जानेका अवकाग न रहता था।- "अनुमति देता हैं, छोटे जन्ताघरमें एक ओर आगका स्थान बनानेकी, और बळे जन्ताघरमें बीचमें।" II5 जन्नाघरमें अग्निमुन्द (=पुना) जल जाता था।- "अनुमति देता है, मंहपर मिट्टी देनेकी ।" 116 हाथमें मिट्टी भिगाते थे।- "अनुमति देता हूँ मिट्टी (भिगाने के लिये) दोनकी।" 117 मिट्टी में दुर्गन्ध भाती थी।- 11 -