पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४९७

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४३२ ] ४-चुल्लवग्ग [ ५४ 56 उस समय भिक्षु नंगे होते एक दूसरेकी वंदना करते कराते थे। एक दूसरेकी मालिश करते थे; एक दूसरे को (चीजें) देते थे, ग्रहण करते थे, खाते थे, आस्वादन करते थे, पीते थे। ०।- "भिक्षुओ! नंगा होते एक दूसरेकी वंदना न करनी करानी चाहिये । एक दूसरेकी मालिग न करनी चाहिये, एक दूसरेको देना न चाहिये, ग्रहण न करना चाहिये ; न खाना आस्वादन करना, (और) पीना चाहिये। जो वंदना करे० पोये उसे दुक्कटका दोप हो।" 138 उस समय भिक्षु जन्ताघरमें जमीनपर चीवर रखते थे, चीवरमें धूल लग जाती थी।- "०अनुमति देता हूँ, जन्ताघरमें चीवर (टाँगनेके) बाँस और रस्सीकी ।" 139 वर्षा होनेपर चीवर भीग जाते थे।- "०अनुमति देता हूँ जन्ताघर-शालाकी ।"....... 140 "०अनुमति देता हूँ ऊँची कुरसीकी करनेकी।" I4I "०अनुमति देता हूँ, ०१ चिननेकी।" 142 '०अनुमति देता हूँ, ०२ सीढीकी।" .143 "०अनुमति देता हूँ, वाहींकी।" 144 जन्ताघरकी गालामें तिनकेका चूरा पळता था- "०अनुमति देता हूँ, ओगुम्बनकर ०३ चीवर (टाँगने ) के बाँस-रस्सीके बनानेकी। 145 उस समय भिक्षु जंताघरमें और पानीमें नंगे हो मालिश करने में हिचकिचाते थे।०।-- "०अनुमति देता हूँ, तीन प्रकारके पर्दे (में नंगे होने ) की -जन्ताघरका पर्दा, पानीका पर्दा, (और) वस्त्रका पर्दा।" 146 (४) पानीके स्थान उस समय जन्ताघरमें पानी नहीं रहता था ।- "०अनुमति देता हूँ उ द पा न (=घिळीची) की ।" 147 उदपानका कूल (बारी) टूटना था।-- "अनुमति देता हूँ, ईट पत्थर और लकळीकी चिनाईकी ।"......148 "० अनुमति देता हूँ, ऊँची कुरमी बनानेकी ।". ...... 149 'अनुमति देता हूँ, तीन प्रकारकी नीढ़ियोंकी० ।” 150 'अनुमति देता हूँ, बाँहींकी।" ISI उस ममय भिक्षु बल्लीने भी, कमरबंदमे भी पानी निकालते थे- "० अनुमति देता हूँ, पानी निकालनेके (=ik) की रस्सीकी।" 152 हाथमें दर्द होने लगता था- 'अनुमति देता हूँ, तुला (=डेकली), करकटक (=पुर) और चक्कवट्टक (रहट ) की।" 153 वर्तन बहुत टूटते थे- "अनुमति देता हूँ, तीन बारकों (=रक्षकों) की-लोहवारक, दाल-चारक और धर्म- खंडकी।" 154 उन समय निक्ष न्दुली जगहने पानी निकालते वक्त मीन भी गर्माने भी कष्ट पाते थे।--- "अनुमति देता हैं. भिक्षको पान-माला (=का परकी छाजन) की।" 155 4

  • देग्यो पृष्ट ४३१ (129)।

'देखो पृष्ट ४६०-६१ (137,127) । देखो पृष्ट ४३१ (130)।