पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५१३

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४४६ ] ४-चुल्लवग्ग [ ५१ (३) छींक आदिके मिथ्या-विश्वास १--उस समय बड़ी भारी परिपसे घिरे धर्मोपदेश करते भगवान्ने छींका। भिक्षुओने- भन्ते ! भगवान् जीते रहें, सुगत जीते रहें'-- (कह) ऊँचा शब्द (=आवाज़) महान् गब्द किया। उस गब्दसे धर्मकथामें विक्षेप हुआ। तब भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया-- "भिक्षुओ! छींकनेपर जीते रहें' कहनेसे क्या उसके कारण (पुरुप) जीयेगा, मरेगा?" "नहीं, भन्ते ! "भिक्षुओ ! छींकनेपर 'जीते रहें' नहीं कहना चाहिये, दुक्कट ० ।” 244 २--उस समय भिक्षुओंके छींकनेपर लोग 'जीते रहें भन्ते !' कहते थे। भिक्षु संदेहयुक्त हो नहीं बोलते थे। लोग हैरान होते थे--"कैसे शाक्यपुत्रीय श्रमण छींकनेपर 'जीने रहें भन्ते !' कहने पर नहीं बोलते!" भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! गृहस्थ मांगलिक होते हैं, भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, गृहस्थोंके 'जीते रहें भन्ने!' कहनेपर, 'चिरंजीव' कहनेकी।" 245 (४) लहसुन खानेका निपेध १--उस समय भगवान् बड़ी परिपद्के बीच बैठे धर्मोपदेश करते थे। एक भिक्षुने लहसुन ग्वाया था। भिक्षु न टोके, इस (विचार) से वह एक ओर (अलग) बैठा था। भगवान्ने उस भिक्षुको अलग बैठे देखा। देखकर भिक्षुओंसे कहा-- "भिक्षुओ ! क्यों वह भिक्षु अलग वैठा है ?" "भन्ते ! इम भिक्षुने लहसुन खाया है। भिक्षु न टोके इस (विचार) से यह अलग बैठा हुआ है।" "भिक्षुओ ! क्या वह खाने लायक (चीज़) है, जिसे खाकर इस प्रकारकी परिपसे बाहर रहना पळे?" "नहीं, भन्ते ! !” "भिक्षुओ! लहसुन नहीं खाना चाहिये, ०दुक्कट०।" 246 २-उस समय आयुष्मान् मा रि पु त्र के पेटमें दर्द था। तब आयुप्मान् म हा मोग्ग ला न जहाँ आयुप्मान् सारिपुत्र थे, वहाँ गये । जाकर आयुष्मान् सारिपुत्रसे यह बोले- "आवुम सारिपुत्र ! तुम्हाग पेटका दर्द किमसे अच्छा होता है ?" "लहसुनसे आवुस !" भगवान्मे यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ रोग होनेपर लहसुन खानेकी।" 247 ६७-पेशावखाना, पारवाना, वृक्षरोपण, वर्तन-चारपाई आदि सामान (१) पेशावखाना -उस समय भिक्षु आगममें जहाँ नहाँ पेनाब (=पम्माव) कर देते थे, आगम गंदा होता था।- "भिक्षओ ! अनुमति देता है, एक ओर पेसाब करनेगी।" 248

--आगममें दुर्गध पै.रती थी।--