४४८ ] ४-चुल्लवग्ग [ 43313 (=झिटकिनी), घटिक (=विलाई), तालच्छिद्द (=तालेका छेद), आविजनच्छिद अविञनरज्जु (=रस्सीकी सिकड़ी)की।" 267 १५-वच्चकुटीमें तिनकेका चूरा पळता था।-- "०अनुमति देता हूँ, ओगुम्बन करके०१ चीवर (टाँगने ) के बाँस और रस्सीकी ।" 268 १६-उस समय एक भिक्षु बुढ़ापेकी अति दुर्वलताके कारण पाखाना हो उठते समय गिर पळा । भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, अवलम्बनकी ।" 269 १७-वच्चकुटी घिरी न थी।-- 'अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या काष्ठके प्राकारसे घेरनेकी ।" 270 १८--कोष्ठक (=बरांडा) न था ।- "०अनुमति देता हूँ, कोष्ठककी।" 271 १९-कोष्ठकमें किवाळ न था ।- "०अनुमति देता हूँ, किवाळ०२ अविनरज्जुकी।" 272 २०-कोष्ठकमें तृणका चूरा गिरता था।- "०अनुमति देता हूँ, ओगुम्वन करके०२ पंचपटिकाकी ।" 273 २१-–परिवेणमें (=पाखानेके आँगन) में कीचळ होता था ।- "०अनुमति देता हूँ, मरुम्ब (=चूर्ण) के बिखेरनेकी ।" 274 २२--पानी लगता था ।- '०अनुमति देता हूँ, पानीकी नालीकी ।" 275 २३-(पाखानेके) पानीका घळा न था।- "०अनुमति देता हूँ, पाखानेके पानीके घळेकी।" 276 २४–पाखानेका शराव (=मेटिया) न थी।-- "०अनुमति देता हूँ, पाखानेके शरावकी ।" 277 २५-तकलीफ़के साथ बैठकर पानी लेते थे।- "०अनुमति देता हूँ, पानी लेनेके पायदानकी ।" 278 २६-पानी लेनेके पायदान वेपर्द थे, भिक्षु पानी लेनेमें लजाते थे ।- "०अनुमति देता हूँ, ईंट, पत्थर या लकळीके प्राकारसे घेरनेकी ।" 279 पाखानेका गढ़ा बिना ढक्कनका था, तिनकेका चूरा भीतर पळता था ।-- "०अनुमति देता हूँ, ढक्कनकी।" 280 (३) वृक्षका रोपना आदि उस समय पड्व गर्गीय भिक्षु इस प्रकारके अनाचार करते थे--मालावच्छ (=फूलके पौधे) को रोपते रोपाते थे, सींचते सिंचाते थे, चुनते चुनाते थे, गूंथते गुंथवाते थे। एक ओर की बेटी माला करते कराते थे। दोनों ओरमे बँटी माला० । मंजरीक' बनाते बनवाते थे। विधू-तिक बनाते बनवाने थे। वटंक बनाते बनवाते थे। अचेलक बनाते बनवाते थे। उरच्छद बनाते बनवाते थे। ओर. 'देखो ऊपर पृष्ट ४३० (107) ३देखो चुल्ल १९३१ पृष्ट ३४०-५० । २देखो पृष्ट ४३० (107)। ४ मालाओंके भेद ।
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