सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 64 ४५२ ] ४-चुल्लवग्ग तब भगवान् राजगृहके श्रेष्ठीको इन गाथाओंसे अनुमोदनकर आसनसे उठ चले गये। लोगोंने सुना--भगवान्ने विहारकी अनुमति दे दी है, और (वह) सत्कारसहित विहार बन- वाने लगे। (उस समय) वह विहार बिना किवाळके थे । साँप भी, बिच्छू भी, कनखजूरे भी घुस जाते थे। भगवान्से यह बात कही।-- (३) किवाळ और किवाळके सामान "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ किवाळकी।" 2 भीतमें छेदकर वल्लीसे या रस्सीसे किवाळको बाँधते थे, उन्हें चूहे भी, दीमक भी खा जाते थे, बंधनोंके खाये जानेपर किवाळ गिर पळता था। ०-- "०अनुमति देता हूँ, पिट्ठि-संघाट (=चौकठे), उदुक्खलिक (=मलई) और उत्तर पाशक (=दासो) की।"3 किवाळ नहीं जुळते थे।०-- "०अनुमति देता हूँ, आविञ्जन-छिद्र और आविजनकी रस्सीकी।" 4 किवाळ भेळे न जा सकते थे।०- '०अनुमति देता हूँ, अग्गलवट्टिक (=अर्गल फलाक), कपिसीस (=झिकिनी लगाने का छिद्र), सूचिक और घटिक (=बेला)की।" , उस समय भिक्षु किवाळको बन्द न कर सकते थे।०- "०अनुमति देता हूँ तालेके छिद्रकी; लोहे (=तावे) के ताले, काठके ताले और सींकके ताले इन तीन तालोंकी।"6 जो कोई भी खोलकर घुस जाते थे, विहार अरक्षित रहता था।- '०अनुमति देता हूँ मूचिका (=कुंजी) और यंत्रक (-ताले) की।" 7 उस समय विहार तृणमे छाये होते थे; (जिससे) शीतकालमें शीतल और उप्णकालमें उष्ण (होते थे) 10- '० अनुमति देता हूँ ओगुम्बन कर लीपने-पोतनेकी।" 8 (४) अँगला उस समय विहार बिना जंगले (=वातायन) के थे, (जिसमे) देखनेके अयोग्य तथा दुर्गध- युक्त (होते थे) अनुमति देता हूँ, तीन (प्रकारके) जंगलों (=वातायन) की--(१) वेदिका-वातायन, जालीदार वातायन, और (३) छन्टोंबाले वातायनकी।"9 जंगलेके भीतग्मे काळक (=पक्षी विशेष) भी बगुलियाँ (-बगले) भी घुस जाती थीं 10-- 'अनुमति देता हूँ जंगलोंक पर्दै (=चक्कलिका) की।" 10 चक्कलिकाके बीचमे भी काळक और बगुलियाँ घुग जाती थीं।-- "अनुमति देता है. जंगलेके किवाळकी, जंगलेकी भिसिका (छज्जा) की।" 11 (५) चारपाई, चोको आदि उम ममय भिक्ष भमिपर मोने थे, देह भी, बस्त्र भी धूमर होते थे।-- "०अनुमति देता हूँ तृपके विछोनेकी ।' तपर्क बिछौनेको कीले ( दीमक) या जाते थे।- "अनुमति देता हूँ. मीड (-चटाई ? ) की।" 13 14 10-- 16 I 2