- ४५४ ] ४-चुल्लवग्ग [ ६१ (६) सूत, विस्तरा आदि उस समय संघको सूत मिला था 10- "०अनुमति देता हूँ (सूतसे) चारपाई बुननेकी ।" 37 अंगोंमें बहुतसा सूत लग जाता था ।- "०अनुमति देता हूँ, अंगोंको वींधकर अष्टपदक (=शतरंजी) बुननेकी ।" 38 चोलक (=कपळा) मिला था।- "०अनुमति देता हूँ, चिलिमिका (=ताळके छालका बना कपळा) बनानेकी ।” 39 तूलिक (=कपास) मिली थी।- "०अनुमति देता हूँ, जटा सुलझा तकिया (=विम्वोहन) बनानेकी । तूल (=कपाम तीन हैं-वृक्षतूल (=सेमल आदिका), लतातूल (=मदार आदिका), पोटकी-तूल (=कपास)।" 40 उस समय षड्वर्गीय भिक्षु अर्धकायिक (=आधा शरीर लम्बी) तकिया धारण करते थे। लोग विहारमें घूमते देखकर हैरान होते थे-जैसे कामभोगी गृहस्थ । ०- "भिक्षुओ ! अर्घकायिक तकियेको नहीं धारण करना चाहिये, जो धारण करे उसे दुक्कटका दोष हो। अनुमति देता हूँ, सिरके वरावरके तकियेकी ।" उस समय रा ज गृह में गिरग्गसमज्जा (=०मेला) था; लोग महामात्यों (=राजमंत्रियों) के लिये ऊन, (लत्ते), छाल, तृण, पत्तेके गद्दे (=भिसि) तय्यार कराते थे। समज्जा (=मेले ) के खतम हो जानेपर वह खोल उतारकर ले जाते थे । भिक्षुओंने समज्जाके स्थानपर बहुतसे ऊन, लने. छाल, तृण और पत्तोंको फेंका देखा । देखकर भगवान्से यह बात कही। '०अनुमति देता हूँ, ऊन, लत्ता, छाल, तृण और पत्ता इन पाँचके गद्देकी ।” 42 उस समय संघको शयन-आसनके उपयोगी दुस्स (=थान) मिला था ।०- '०अनुमति देता हूँ, (उससे) गद्दा सीनेकी।" 43 उस समय भिक्षु चारपाईके गद्देको चौकीपर विछाते थे, चौकीके गद्देको चारपाईपर बिछाते थे। 41 11 61 गद्दे टूट जाते थे। 14 "०अनुमति देता हूँ, गद्दीदार चारपाई और गद्दीदार चौकीकी।" 44 अस्तर (=उल्लोक) विना दिये विछाते थे, नीचेसे गिरने लगता था ।- "०अनुमति देता हूँ, अस्तर देकर, विछाकर गद्देको (चारपाईपर) सीनेकी ।" +5 खोल खींचकर ले जाते थे।- "०अनुमति देता हूँ (रंग) छिळकनेकी ।" 46 (फिर) भी ले जाते थे।- "०अनुमति देता हूँ, भत्तिकम्म (=तागना) की ।" (फिर) भी ले जाते थे।- " अनुमति देता हूँ हत्थ-भत्ति (=मी देना) की ।" 47 48 , ६२-बिहारकी रंगाई. और नाना प्रकारके घर (?) भीतके रंग उस ममय नीथिकों (अन्य मतके साधुओं) की गय्या मफ़ेद होती थी, जमीन काली, श्रीन भीतपर गेम्वा काम किया होता था। बहुतने लोग दाव्या देग्यने जाया करते थे ।-
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