पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५२२

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". ६०२।४] विहारके घर [ ४५५ "०अनुमति देता हूँ, विहारमें सफ़ेद, काला और गेरूका काम करनेकी।" 49 उस समय कळी भूमिपर श्वेत रंग नहीं चढ़ता था।०- "०अनुमति देता हूँ भूसीके पिंडको देकर, हाथसे चिकनाकर सफ़ेद रंग करनेकी।" 50 सफ़ेद रंग रुकता न था।०- "०अनुमति देता हूँ, चिकनी मिट्टी दे हाथसे चिकनाकर सफ़ेद रंग करनेकी।" JI सफ़ेद रंग न रुकता था।- 'अनुमति देता हूँ, गोंद और खली (देने) की।" 52 उस समय कहीं कहीं भीतपर गेरू नहीं चढ़ता था।- 'अनुमति देता हूँ, भूसीके पिंडको देकर, हाथसे चिकनाकर गेरू रंगनेकी।"...53 ". खली मिट्टी दे, हाथसे चिकनाकर गेरू करनेकी।"... •54 "० ०, सरसोंकी खली और मोमके तेलकी।" 55 उस समय कळी (=परुष) भीतपर काला रंग नहीं चढ़ता था।- "० ०, भूसीके पिंडको देकर, हाथसे चिकनाकर काला रंग करनेकी।" 56 "० ०, केचुयेकी मिट्टी दे, हाथसे चिकनाकर काला रंग करनेकी ।"...57 गोंद और (हर्रा आदिके) कषायकी।" 58 (२) भोतमें चित्र उस समय षड्वर्गीय भिक्षु विहार में स्त्री, पुरुष आदिके चित्र अंकित करते थे। लोग विहार में घूमते समय देखकर हैरान होते थे०-जैसे कामभोगी गृहस्थ । ०- "भिक्षुओ ! स्त्री, पुरुषके चित्र' नहीं बनवाना चाहिये, जो वनवावे उसे दुक्कटका दोप हो। अनुमति देता हूँ, माला, लता, मकरदन्त (=त्रिकोणोंकी झाला), पंचपट्टिका (=फर्शकी पटिया) की।" 60 (३) सीढ़ो आदि उस समय विहारोंकी कुर्सी नीची होती थी, पानी भरता था।०- '०अनुमति देता हूँ, कुर्सी ऊँची बनानेकी।" 61 चिनाई गिर जाती थी।- "०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळीकी चिनाईकी।" 62 चढ़नेमें तकलीफ़ होती थी "०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळीकी सीढ़ीकी।" 63 (४) कोठरी चढ़ते वक्त गिर पड़ते थे।- "०अनुमति देता हूँ, आलम्बन वाँहींकी।" 64 उस समय भिक्षुओंके विहार एक आँगनवाले थे । भिक्षु लेटनेमें लजाते थे।०- "०अनुमति देता हूँ, पर्दे (=तिरस्करिणी) की ।" 65 तिरस्करिणीको उठाकर देखते थे।- 'अनुमति देता हूँ, आधी दीवारकी।" 66 1 41 श्रद्धा, वैराग्य उत्पन्न करनेवाले जातकोंके चित्र बनवाये जा सकते हैं (--अट्ठकथा)।