पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५२३

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11 ४५६ ] ४-चुल्लवग्ग [ $8719 आधी दीवारके ऊपरसे देखते थे।- "०अनुमति देता हूँ, शिविका-गर्भ (=बरावर लम्बाई चौळाईकी कोठरी), नालिकागर्भ (=लम्बी कोठरी), और हर्म्य-गर्भ (=कोठेपरकी कोठरी)-इन तीन (प्रकारके) गर्भो (= कोठरियों) की।” 67 उस समय भिक्षु छोटे विहारके बीचमें गर्भ (=कोठरी) बनाते थे, रास्ता न रहता था ।- "०अनुमति देता हूँ, छोटे विहारमें एक ओर गर्भ वनानेकी, और बळे विहार में बीचमें।" 68 उस समय विहारकी भीतका पाया जीर्ण हो जाता था।- '०अनुमति देता हूँ कुलुंक-पादक' की।" 69 उस समय (वर्षासे) विहारकी भीत ढहती है।०-- "अनुमति देता हूँ, रक्षा करनेकी टट्टी, और उद्दसुधा की ।" 70 उस समय एक तृणकी छतसे भिक्षुके कंधेपर साँप गिरता था। वह डरके मारे चिल्ला उठा। भिक्षुओंने दौळकर उस भिक्षुसे यह पूछा।- "आवुस ! क्यों तुम चिल्लाये?" उसने भिक्षुओंसे वह बात कह दी। भिक्षुओंने भगवान्से वह बात कही।- "०अनुमति देता हूँ वितान (=चाँदनी) की।" 71 उस समय भिक्षु चारपाईके पावोंमें भी, चौकीके पावोंमें भी थैला लटकाते थे। उन्हें चूहे भी खा जाते थे, दीमक भी खा जाते थे।- "०अनुमति देता हूँ, भीतके कीलकी, नागदन्त (=खूटी)की।” 72 उस समय भिक्षु चारपाईपर भी, चौकीपर भी चीवर लटकाते थे, चीवर कट जाता था ।०-- "०अनुमति देता हूँ, चीवर (टाँगने) के वाँस और रस्सी (=अर्गनी की)।" 73 (५) आलिन्द-ओसारा उस समय विहारोंमें आलिन्द (=ड्योढी) और ओसारे न होते थे।-- '०अनुमति देता हूँ, आलिन्द, प्रघण (=देहली), प्रकुड्य (कोठरीकी दीवारके भीतर) और ओसारे (=ओसरक) की।" 74 आलिन्द खुले थे, भिक्षु वहाँ लेटने में लजाते थे।-- 'अनुमति देता हूँ, संसरण (=चिक) किटिक और उद्घाटन किटिककी।" 75 (६) उपस्थानशाला उस समय भिक्षु खुली जगहमें भोजन करते थे, और जाळे गर्मीसे तकलीफ़ पाते थे।0-- "०अनुमति देता हूँ, उ प स्था न शा ला की।"...76 '०अनुमति देता हूँ, कुर्सीको ऊँची करनेकी।" 77 "अनुमति देता हूँ, ईंट, पत्थर या लकळीकी चिनाईकी।". . .78 अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळीकी सीढ़ीकी।"...79 "अनुमति देता हूँ, आलम्बनबाहु (=कटहग) की।". . .80 14 'काटकर ओटके लिए वहाँ गाळी वृक्षकी पेळी । 'बछळेके गोबर और रायको मिलाकर बनाया प्लास्तर (अट्ठकथा) ।