पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५२४

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14 1 44 ६०२।९ ] विहारके घर [ ४५७ "०अनुमति देता हूँ, ओगुम्बन' करके०२ चीवर (टाँगने) के वाँस-रस्सीकी।" 81 उस समय भिक्षु खुली जगहमें चीवर पसारते थे। चीवर धूसर होते थे।-- "०अनुमति देता हूँ, खुली जगहमें चीवर (टाँगने) के बाँस-रस्सीकी।" 82 (७) पानो शाला पानी तप जाता था।- " अनुमति देता हूँ, पानी-शाला और पानी-मंडपकी।"...83 '० अनुमति देता हूँ, कुर्सीको ऊँची करनेकी।"... ..84 "०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळीकी चिनाईकी।". . .85 "अनुमति देता हूँ, इंट, पत्थर या लकळीकी सीढ़ीकी।"...86 " अनुमति देता हूँ, आलम्बनबाहुकी।"...87 "०अनुमति देता हूँ ओगुम्बन करके० २ चीवर (टाँगने) के वाँस-रस्सीकी।" 88 पानीका वर्तन न था।- '०अनुमति देता हूँ, पानीके संख (=चुक्का ? ) और पानीके शराव (=पुरवा) की।" 89 (८) विहार उस समय विहार (दीवारमे) घिरा न होता था।- "०अनुमति देता हूँ, ईट, पत्थर या लकळी (इन) तीन (तरह) के प्राकारोंसे।" 90 कोष्ठक (=द्वारपरका कोठा) न था।- "० अनुमति देता हूँ, कोष्ठककी।"...91 "० ०, कुर्सी ऊंची करनेकी।"... .92 कोप्ठको किवाळ न थे "०अनुमति देता हूँ, किवाळ,० आविञ्जनच्छिद्दकी।" 93 कोप्ठकमें तिनकेका चूरा गिरता था।- "० ०, ओगुम्बन करके०२ पंचपट्टिकाकी।" 94 (९) परिवेण उस समय परिवेण (=आँगन) में कीचळ होता था।०- "०अनुमति देता है, मरुम्ब (=वालू) विखेरनेकी।" 95 नहीं ठीक होता था ।- 'अनुमति देता हूँ, प्रदरगिला बिछानेकी।" 96 पानी लगता था।-- 'अनुमति देता है, पानीकी नालीकी।” 97 उन नमय भिक्षु पग्विणमें जहां नहाँ आग जलाते थे। परिवेण मैला होता था।-- 'अनुमति देता हूँ, एक ओर अग्निशाला बनानेकी।"... ..98 कुर्ती ऊँची बनानेकी।" 99 "००, ईट, पत्थर या लकळीकी चिनाईकी।"...100 ट, पत्थर या लकळीकी नीढ़ीकी।"...101 40 11 'लम्बी लाठियोंको गाळ कांटेकी शाखा बांधकर बनाया रॅधान । पृष्ठ ४५२।