पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५३

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१० ] भिक्खु-पातिमोक्ख [ ६१।४ पूछे जाने या न पूछे जानेपर बदनीयतीसे, या आश्रम छोड़ जानेकी इच्छासे ( कहे )- "आयुष्मान ! न जानते हुए मैंने 'जानता हूँ' कहा, न देखते हुए मैंने देखता हूँ' कहा, झूठ-तुच्छ कहा; (तो) वह पाराजिक होता है, यदि अधिमान (=अभिमान) से न कहा हो आयुष्मानो ! यह चार पाराजिक दोप कहे गये। इनमेंसे किसी एकके करनेसे भिनु भिक्षुओंके साथ वास नहीं करने पाता। जैसे (भिच होनेसे ) पहले वैसेही पीछे पाराजिक होकर साथ रहने के योग्य नहीं रहता । आयुष्मानोंसे पूछता हूँ -क्या (आप लोग ) इनसे शुद्ध हैं ? दूसरी बार भी पुछता हूँ-क्या शुद्ध हैं ? तीसरी बार भी पूछता हूँ-क्या शुद्ध हैं ? आयुष्मान् लोग शुद्ध हैं, इसीलिये चुप हैं-ऐसा मैं इसे धारण करता हूँ। पाराजिक समाप्त ॥१॥ फल-साक्षात्कार(१) स्रोतआपत्ति-फलका साक्षात् करना, (२) सकृद्-अगामी०, (३) अनागामी०, ( ४ ) अर्हत् । क्लेश-प्रहाण=(3) रागका प्रहाण (=विनाश ), (२) हेप-प्रहाण, (३) मोह-प्रहाण । विनीवरणता= (१) रागसे चित्तकी विनीवरणता (=मुक्ति ), ( २ ) द्वेपसे चित्त-विनीवर- णता, (३) मोहसे चित्त-विनीवरणता। शुन्यागारमं अभिरति=(१) प्रथमध्यानसे शून्य स्थानमें संतोष, ( २ ) द्वितीयध्यानसे० (३) तृतीयध्यानले०, ( ४ ) चतुर्थध्यानसे०, (-भिक्बु-विभंग ) ।