पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

I 20 ६१४।४ ] सांघिक विहार [ ४६७ "भिक्षुओ! मैं किसी प्रकारसे (अपनेसे) वृद्धके आसन हटानेके लिये नहीं कहता, जो हटाये उसे दुक्कटका दोष हो।" 118 उस समय षड्वर्गीय भिक्षु रोगी भिक्षुओंको उठाते थे। रोगी ऐसा कहते थे--'आवुसो ! हम रोगी हैं, उठ नहीं सकते।' 'हम आयुष्मानोंको उठावेंहीगे'-(कह) पकळकर उठा खळे होनेपर छोळ देते थे। रोगी मूर्छित हो गिर पळते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! रोगीको न उठाना चाहिये, • दुक्कट ०।” 119 उस समय षड्वर्गीय भिक्षु-हम रोगी हैं, उठाये नहीं जा सकते--(कह) अच्छे आसनों पर वैठते थे 10- "०अनुमति देता हूँ, रोगीको (उसके योग्य) आसन देनेकी।" उस समय षड्वर्गीय भिक्षु जरासे (शिर दर्द) से भी शयन-आसन हटाते थे।-- "०ज़रासे शयन-आसनसे नहीं हटाना चाहिये, ० दुक्कट ०।" 121 (४) सांघिक विहार उस समय सप्त द श वर्गीय भिक्षु–यहाँ हम वर्षावास करेंगे--(विचार) एक छोर वाले विहारकी मरम्मत करवा रहे थे। षड्वर्गी य भिक्षुओंने सप्तदशवर्गीय भिक्षुओंको विहारकी मरम्मत कराते देखा। देखकर ऐसा कहा- "आवुसो ! यह सप्तदश वर्गीय भिक्षु एक विहारकी मरम्मत करा रहे हैं, आओ ! इन्हें हटावें।" तव पड्वर्गीय भिक्षुओंने सप्तदशवर्गीय भिक्षुओंसे यह कहा- "आवुसो ! उठो (यहाँसे) इस विहारमें हमारा (हक) प्राप्त होता है।" (सप्तदश)-"तो आवुसो ! पहिले ही कहना चाहिए था, जिसमें कि हम दूसरे विहारकी मरम्मत करते ?" (षड्०)-"आवुसो! सांघिक (संघका) विहार है न ?" (सप्तदश)--"हाँ, आवुसो! सांधिक विहार है।" (पड्०)-"उठो आवुसो! इस विहारमें हमारा (हक) प्राप्त होता है।" (सप्तदश)-"आवुसो! विहार वळा है, तुम भी वास करो, हम० भी वास करेंगे।" (पड्०)-"उठो आवुसो! इस विहारमें हमारा (हक) प्राप्त होता है।"- (कह) कुपित असन्तुष्ट हो गर्दनसे पकळकर निकालते थे। निकालनेपर वह रोते थे। भिक्षुओंने पूछा- "आवुसो ! किसलिये तुम रोते हो ?" “आवसो! यह पड्वर्गीय भिक्षु कुपित असन्तुष्ट हो हमें सांघिक विहारसे निकालते हैं।" अल्पेच्छ भिक्षु० । भगवान्ने यह वात वोले । सचमुच०।- "भिक्षुओ! कुपित असन्तुष्ट हो (किसी) भिक्षुको सांघिक विहारसे नहीं निकालना चाहिये, जो निकाले उने धर्मानुसार (दंड) करना चाहिये । भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ गयन-आसनके ग्रहण करानेकी।” 122 तर भिक्षुओंको यह हुआ—'कैसे शयन-आसन ग्रहण कराना चाहिये ?' भगवान्से यह वात कही।- "निशुओ ! अनुमति देता हूँ, पाँच अंगोंने युक्त भिक्षुको गयन-आनन महापक (=गयन- आमनको ग्रहण करानेवाला अधिकारी) चुनने ( गम्मन्त्रण करने) की-(१) जो न स्वेच्छाचार