पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५४१

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४७४ ] ४-चुल्लवग्ग [ ६१६१ "भिक्षुओ! पैर धोये विना शय्या-आसनपर नहीं चढ़ना चाहिये, ०दुक्कट० 1" 159 उस समय भीगे पैरों शय्या-आसनपर चढ़ते थे, ०मलिन०।- "०भीगे पैरों शय्या-आसनपर नहीं चढ़ना चाहिये, ०दुक्कट०।" 160 जूते सहित शय्या-आसनपर चढ़ते थे, मलिन० । ०- "०जूते सहित शय्या-आसनपर नहीं चढ़ना चाहिये, दुक्कट०।" 161 ०काम की हुई भूमिपर थूकते थे, रंग खराब होता था।०- "०काम की गई भूमिपर नहीं थूकना चाहिये, दुक्कट ० । अनुमति देता हूँ, थूकदान (=खेळ- मल्लक)की ।" 162 ०चारपाईके पाये भी चौकीके पाये भी काम की हुई भूमिको कुरेदते थे 10- "०अनुमति देता हूँ (पावोंको) कपळेसे लपेटनेकी।" 163 उस समय काम की हुई भीतपर ओठंगते थे, रंग खराब होता था।- "०काम की हुई भूमिपर नहीं ओठंगना चाहिये, ०दुक्कट० । अनुमति देता हूँ, ओठंगनेके तख्तेकी।" 164 ओठंगनका तख्ता नीचेसे भूमिको कुरेदता था, और ऊपरसे भीतको नुकसान पहुँचाता था।- "०अनुमति देता हूँ, ऊपरसे भी नीचेसे कपळा लपेटनेकी।" 165 उस समय भिक्षु पैर धो लेटने में संकोच करते थे ।०- '०अनुमति देता हूँ, बिछाकर लेटनेकी ।" 166 11 ६६-संघके बारह कर्मचारियोंका चुनाव ६--राजगृह (१) भक्त-उद्देशक तव भगवान् आ ल वी में इच्छानुसार विहारकर जिधर रा ज गृह है, उधर चारिकाके लिये चल पळे । क्रमशः चारिका करते जहाँ राजगृह है, वहाँ पहुँचे। वहाँ भगवान् राजगृहमें वे णु व न कलन्दक निवापमें विहार करते थे। उस समय राजगृहमें दुर्भिक्ष था । लोग संघको भोज नहीं दे सकते थे, उद्देश- भोज, शलाक-भोज, पाक्षिक, उपोसथिक (=पूर्णिमा अमावस्याका), प्रातिपदिक (=प्रतिपद्का) (भोज) कराना चाहते थे। भगवान्से यह बात कही।- "०अनुमति देता हूँ, संघ-भोज, उद्देश-भोज, गलाक-भोज, पाक्षिक, उपोसथिक (और), प्रातिपदिक (-भोज) की।" 167 उस समय प ड वर्गीय भिक्षु स्वयं अच्छा अच्छा भोजन ले खराब खराब (अन्य) भिक्षुओंको देने थे।०- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, पाँच बातोंने युक्त भिक्षुको भक्त-उद्देशक (=भोजके लिए भिक्षुओंको भेजनेवाला) चुननेकी-(१) जो न स्वेच्छाचारके रास्ते जाये, (२) न द्वेष०, (३) न भय०, (४) न मोह; (५) उद्देन किये और उद्देश न कियेको जाने । 168 "और भिक्षुओ! इस प्रकार चुनना चाहिये-पहिले (उम) भिक्षुमे पूछकर, चतुर गमर्थ भिक्षु मंघको मूचित करे- "क.न निक