पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४८० ] ४-चुल्लवग्ग [ ७११४ रक्षित गोपित होते हुये भी भीत, उद्विग्न, स-शंक,त्रास-युक्त घूमता था। किन्तु आज भन्ते ! अकेला अरण्य में रहते हुये भी० शून्य-गृहमें रहते हुये भी, निडर, अनुद्विग्न, अ-शंक अ-त्रास-युक्त, बेफिकर" बिहार करता हूँ। इस बातको देख भन्ते ! अरण्यमें रहते।" तब भगवान्ने इस बातको जान उसी समय यह उदा न कहा- "जिसके भीतरसे कोप भाग गया, होने न होनेसे जो दूर हो गया। उस निर्भय, सुखी, शोक-रहित (पुरुप) का देवता भी साक्षत्कार नहीं पा सकते।" २-कौशाम्बी (३) देवदत्तकी लाभ-सत्कार के लिये चाह 'तब भगवान् अनू पि या में इच्छानुसार बिहार कर जिधर को शाम्बी है, उधर चारिकाके लिये चल पळे । क्रमशः चारिका करते जहाँ कौशाम्बी है वहाँ पहुंचे। वहाँ भगवान् कौशाम्बी में घो पि ता रा म में बिहार करते थे। उस समय देवदत्तको एकान्तमें बैठे, विचारमें बैठे, चित्तमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ-'किसको में प्रसादित करूँ, जिसके प्रसन्न होनेपर मुझे बळा लाभ, सत्कार पैदा हो।' तब देवदत्तको हुआ--यह अजातशत्रु कुमार तरुण है, और भविष्य में उत्तम (=भद्र) है; क्यों न मैं अजातशत्रु कुमारको प्रसादित करूँ, उसके प्रसन्न होनेपर मुझे वळा लाभ, सत्कार पैदा होगा।' तव दे व दत्त शयनासन सँभालकर पात्र-चीवर ले जिधर रा ज गृह था, उधर चला। क्रमशः जहाँ राजगृह था वहाँ पहुँचा । तब दे व दत्त अपने रूप (=वर्ण) को अन्तर्धान कर कुमार (बालक) का रूप बना, सांकली मेखला (=तगळी) पहिन, अ जा त-शत्रु कुमारकी गोदमें प्रादुर्भूत हुआ। अजात- शत्रु कुमार भीत-उद्विग्न, उत्शंकित-उत्-त्रस्त हो गया । तब दे व दत्त ने अजातशत्रु कुमारसे कहा-- "कुमार! तू मुझसे भय खाता है ?' "हाँ, भय खाता हूँ; तुम कौन हो?" "मैं देवदत्त हूँ।" "भन्ते! यदि तुम आर्य देवदत्त हो, तो अपने रूप (=वर्ण) से प्रकट होओ।" तव देवदत्त कुमारका रूप छोळ, संघाटी, पात्र-चीवर धारण किये अजातशत्रु कुमारके सामने खळा हुआ। तव अजा त-शत्रु कुमार, देवदत्तके इस दिव्य-चमत्कार (=ऋद्धि-प्रातिहार्य) से प्रसन्न हो पांच सौ रथोंके साथ सायं प्रातः उपस्थान (=हाज़िरी) को जाने लगा। पांच सौ स्थालीपाक भोजनके लिये ले जाये जाने लगे। ३~-राजगृह (४) देवदत्तको महन्ताईकी इच्छा नव लाभ, सत्कार, दलोको अभिभूत-आदत-चित्त देवदत्तको इस प्रकारकी इच्छा उत्पन्न हुई--में भिक्षु-संघकी (महन्लाई) ग्रहण कर । यह (विचार) चित्तमें आते ही देवदतका (वह) योग- बल (=ऋद्धि) नष्ट हो गया। नब भगवान् बागाम्बीम इच्छानुसार बिहान्कर. . .चारिका करले जहाँ राजगृह है बर: पहुँचे । वहाँ भगवान् गजगृहम कलन्दनिबाप बेणुवनमें बिहार करते थे। ०नि०१६।८।६।