पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५४८

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! ७९१४ ] देवदत्त [ ४८१ तव बहुतसे भिक्षु जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये, जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठे। एक ओर बैठे उन भिक्षुओंने भगवान्को कहा- "भन्ते! अजातशत्रु सौ रथोंके साथ० ।" "भिक्षुओ! देवदत्तके लाभ, सत्कार श्लोक (=तारीफ़) की मत स्पृहा करो । जब तक भिक्षुओ! अजातशत्रु कुमार सायं प्रातः ० उपस्थानको जायेगा; पाँच सौ स्थाली-पाक भोजनके लिये जायेंगे, देवदत्तकी (उससे) कुशल-धर्मों (=धर्मों) में हानि ही समझनी चाहिये, वृद्धि नहीं। भिक्षुओ ! जैसे चंड कुक्कुरके नाकपर पित्त चढ़े,...इस प्रकार वह कुक्कुर और भी पागल हो, अधिक चंड हो।" "भिक्षुओ ! देवदत्तका लाभ सत्कार श्लोक आत्म-बधके लिये उत्पन्न हुआ है। पराभवके लिये०; जैसे भिक्षुओ ! केला आत्म-बधके लिये फल देता है, पराभवके लिये फल देता है, ऐसे ही भिक्षुओ ! देवदत्तका लाभ सत्कार० । जैसे भिक्षुओ! बाँस आत्म-बधके लिये फल देता है, पराभवके लिये फल देता है। ऐसे ही भिक्षुओ! देवदत्तका लाभ-सत्कार० । जैसे भिक्षुओ! नरकट आत्म-वधके लिये। जैसे भिक्षुओ ! अश्वतरी (=खचरी) आत्म-बधके लिये गर्भ धारण करती है, पराभवके लिये गर्भ धारण करती है। ऐसे ही भिक्षुओ! देवदत्तका लाभ-सत्कार। "फल ही केलेको मारता है, फल वाँसको, फल नरकटको (भी)। सत्कार कुपुरुषको (वैसे ही) मारता है, जैसे गर्भ खचरीको।" (९)। उस समय आयुष्मान् म हा मौ द् ग ल्या य न का सेवक क कु ध नामक कोलियपुत्र हाल ही में मरकर एक म नो म य (देव) लोकमें उत्पन्न हुआ था। उसका इतना वळा शरीर था, जितना कि दो या तीन म गध के गाँवोंके खेत । वह उसका (उतना वळा) शरीर न अपने न दूसरोंकी पीळाके लिये था। तब ककुध-देवपुत्र जहाँ आयुष्मान् महामौद्गल्यायन थे, वहाँ आया, आकर आयुष्मान् महा मौद्गल्यायनको अभिवादनकर एक ओर खळा हुआ। एक ओर खळे हो ककुध देवपुत्रने आयुष्मान् महा- मौद्गल्यान से यह कहा- “भन्ते ! लाभ, सत्कार, श्लोक (=प्रशंसा) से अभिभूत आदत्तचित, देव दत्त को इस प्रकारकी इच्छा उत्पन्न हुई—'म भिक्षु-संघ (की महंताई) को ग्रहण करूँ। यह (विचार) चित्तमें आते ही देवदत्तका (वह) योगवल (=ऋद्धि) नष्ट हो गया।" ककुध देवपुत्रने यह कहा—यह कह आयुष्मान् महामौद्गल्यायन अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर वहीं अन्तर्धान हो गया। तब आयुप्मान् महामौद्गल्यायन जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर अभिवादनकर एक ओर बैठे। एक ओर बैठे आयुष्मान् महामौद्गल्यायनने भगवान्से यह कहा- "भन्ते ! मेरा उपस्थाक (=सेवक) क कुध नामक कोलिय-पुत्र हालही में मरकर एक मनोमय (देव-) लोकमें उत्पन्न हुआ है । ०। एक ओर खळे हो ककुध देवपुत्रने मुझसे यह कहा-'भन्ते ! ० देव- दत्तका योगदल (=ऋद्धि) नष्ट हो गया। वहीं अन्तर्धान हो गया।" "क्या मौद्गल्यायन ! तूने (योगदलने) अपने चित्त द्वारा विचारकर......जाना, कि जो कुछ पाजूध देवपुत्रने कहा वह सब वैसा ही है, अन्यथा नहीं?" "भन्ने ! मैंने अपने चित्त द्वारा विचारकर कबुध देवपुत्रको जाना है, कि जो कुछ ककुध देव- भने कहा, यह मद वैसा ही है, अन्यथा नहीं।"