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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५४९

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४८२ ] ४-चुल्लवग्ग [ ७११६ (५) पाँच प्रकारकं गुरु "मौद्गल्यायन ! रहने दो इस वचनको, रहने दो इस वचनको अब वह मोवपुरुष (= निकम्मा आदमी) स्वयं ही अपनेको प्रकट करेगा। मौद्गल्यायन लोकमें यह पाँच (प्रकारके) गुरु (शास्ता) होते हैं। कौनसे पाँच ! - (१) यहाँ मौद्गल्यायन ! एक शास्ता अशुद्ध-शील (=आचार) वाला होने पर भी मैं शुद्ध-शीलवाला हूँ, मेरा शील शुद्ध अवदात (=उज्ज्वल), निर्मल है-दावा करता है । उसके बारेमें (उसके) श्रावक (=शिष्य) जानते हैं-'यह आप शास्ता अशुद्ध-शीलवाले होनेपर भी० दावा करते हैं। यदि हम गृहस्थोंको (उसे) कह दें, तो यह इनके लिये अच्छा न होगा। जो इनके लिये अच्छा नहीं, उसे हम क्यों कहें । यह चीवर पिंडपात (=भिक्षान्न) शय्या-आसन, रोगीके पथ्य भैपज्यके सामानसे भी तो (हमारा) सन्मान करते हैं। जो जैसा करेगा, वैसा वह जानेगा'। मौद्गल्यायन ! इस प्रकारके गुरुके शील-शिष्य गोपन करते हैं। इस प्रकारका शास्ता शिष्योंसे (अपने) शीलके गोपनकी अपेक्षा रखता है। (२) और फिर मौद्गल्यायन ! यहाँ एक शास्ताकी आजीविका अशुद्ध होनेपर भी मैं शुद्ध आजीविका वाला हूँ। (३) एक शास्ताका धर्म-उपदेश अशुद्ध होनेपर भी मैं शुद्ध धर्म- उपदेशवाला हूँ। (४) एक शास्ताका व्याकरण (=भविष्य कथन) अशुद्ध होनेपर भी–मैं शुद्ध व्याकरण वाला हूँ। (५) ० एक शास्ताका ज्ञान-दर्शन (=ज्ञानका साक्षात्कार) अशुद्ध होनेपर भी-मैं शुद्ध ज्ञान-दर्शनवाला हूँ। मौद्गल्यायन ! लोकमें यह पाँच (प्रकारके) गुरु होते हैं । "(१)मौद्गल्यायन ! शील शुद्ध होनेपर -मैं शुद्ध शीलवाला हूँ, मेरा शील, शुद्ध अवदात निर्मल है-यह दावा करता हूँ। मेरे शील शिप्य गोपन नहीं करते । मैं शिष्योंसे (अपने) शीलके गोपनकी अपेक्षा नहीं रखता। (२) आजीविका शुद्ध होनेपर में शुद्ध आजीववाला हूँ। (३) धर्म- उपदेश शुद्ध होनेपर मैं शुद्ध धर्म-उपदेशवाला हूँ०। (४) व्याकरण शुद्ध होनेपर-मैं शुद्ध व्याकरण वाला हूँ। (५) ज्ञान-दर्शन शुद्ध होनेपर-मैं शुद्ध ज्ञान दर्शनवाला हूँ।" (६) देवदत्तका प्रकाशनोय कमे उस समय राजासहित बळी परिपसे घिरे भगवान् गर्म-उपदेश कर रहे थे । तब देवदत्त आसनसे उठ एक कंधेपर उत्तरासंग करके, जिधर भगवान् थे उधर अंजलि जोळ भगवान्से यह वोला- "भन्ते ! भगवान् अव जीर्ण-वृद्ध-महल्लक-अध्वगत वयः-अनुप्राप्त हैं। भन्ते ! अब भगवान् निश्चिन्त हो इस जन्मके सुख-विहारके साथ विहरें । भिक्षु-संघको मुझे दें, मैं भिक्षु-संघको ग्रहण करूँगा।" "अलम् (=वस, ठीक नहीं) देवदत्त ! मत तुझे भिक्षुसंघका ग्रहण रुचे।" दूसरी वार भी देवदत्त ने ० । ० तीसरी बार भी देवदत्तने । ० 'देवदन ! सारिपुत्र मौद्गल्यायनको भी मैं भिक्षुसंघको नहीं देता, तुझ मुर्दे, थुकको तो क्या ?" तब देवदत्तने–'राजासहित परिपा मुझे भगवान्ने फेंका थूक कहकर अपमानित किया और सारिपुत्र, मौद्गल्यायनको बढ़ाया' ( सोच ) कुपित, असंतुष्ट हो भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणाकर चला गया । यह देवदनका भगवान् के माथ पहिला आघात (=द्रोह) हुआ। तब भगवान्ने निक्षमंघको आमंत्रित किया- "भिक्षुओ ! मंत्र गजगृहमें दे व द न का प्रकागनीय-कर्म करे-पूर्वमें देवदन अन्य प्रकृतिला था, अब अन्य प्रकृतिका । (अब) देवदन जो (कुछ) काय वचनमे करे उसका बुद्ध, धर्म, मंघ जिम्मेवार