पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

11 ४९० ] ४-चुल्लवग्गै [ ७१२८ आयुष्मान सा रि पुत्र और मौ द् ग ल्या य न जहाँ भगवान् थे वहाँ गये ।... आयुष्मान् सारिपुत्रने भगवान्को कहा- "भन्ते ! देवदत्त संघको फोळकर, पाँच सौ भिक्षुओंको लेकर जहाँ ग या सी स है, वहां चला गया।" "सारिपुत्र ! तुम लोगोंको उन नये भिक्षुओंपर दया भी नहीं आई ? सारिपुत्र! तुम लोग उन भिक्षुओंके आपमें पळनेसे पूर्वही जाओ।" "अच्छा भन्ते ! उस समय बळी परिपके बीच बैठा देवदत्त धर्म-उपदेश कर रहा था। दे व दत्त ने दुग्ने सारि- पुत्र, मौद्गल्यायनको आते देखा । देखकर भिक्षुओंको आमंत्रित किया। "देखो भिक्षुओ ! कितना सु-आख्यात (= सु-उपदिष्ट) मेरा धर्म है। जो श्रमण गौतमके अग्र- श्रावक सारिपुत्र, मौद्गल्यायन हैं, वह भी मेरे पास आ रहे, मेरे धर्मको मानते हैं।" ऐसा कहनेपर कोकालिकने देवदत्तसे कहा- "आवुस देवदत्त ! सारिपुत्र, मौद्गल्यायनका विश्वास मत करो। सारिपुत्र, मौद्गल्यायन वदनीयत (=पापेच्छ) हैं, पापक (=बुरी) इच्छाओंके वशमें हैं।" "आवुस, नहीं, उनका स्वागत है, क्योंकि वह मेरे धर्मपर विश्वास करते हैं।" तव देवदत्तने आयुष्मान् सारिपुत्रको आधा आसन (देनेको) निमंत्रित किया- "आओ आवुस ! सारिपुत्र ! यहाँ वैठो।" "आवुस ! नहीं" (कह) आयुप्मान सारिपुत्र दूसरा आसन लेकर एक ओर बैठ गये। आयुष्मान् महामौद्गल्यायन भी एक आसन लेकर बैठ गये। तब देवदत्त बहुत रात तक भिक्षुओंको धार्मिक कथा...(कहता) आयुष्मान् सारिपुत्रसे वोला- "आवुस ! सारिपुत्र ! (इस समय) भिक्षु आलस-प्रमाद-रहित हैं, तुम आबुस सारिपुत्र ! 'भिक्षुओंको धर्म-देशना करो, मेरी पीठ अगिया रही है, सो मैं लम्बा पलूंगा।" "अच्छा आवुस !". तव देवदत्त चौपेती संघाटीको विछवाकर दाहिनी वगलसे लेट गया। स्मृति-रहित संप्रजन्य- रहित (होनेसे) उसे मुहूर्त भरमें ही निद्रा आ गई। तब आयुष्मान् सारिपुत्रने आदेशना-प्रातिहार्य (=व्याख्यानके चमत्कार) और अनुशासनीय-प्रातिहार्यके साथ, तथा आयुष्मान् महामौद्गल्यायनने ऋद्धि-प्रातिहार्य (=योग-बलके चमत्कार) के साथ भिक्षुओंको धर्म-उपदेश किया, अनुशासन किया। तब उन भिक्षुओंको . . .विरज-विमल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ—जो कुछ समुदय धर्म (=उत्पन्न होनेवाला) है, वह निरोध-धर्म (=विनाश होनेवाला) है'। आयुप्मान् मारिपुत्रने भिक्षुओंको निमंत्रित किया- "आवुमो ! चलो भगवान्के पाम चलें, जो उस भगवान्के धर्मको पसंद करता है वह आवे।" तब मारिपुत्र मौद्गल्यायन उन पाँच सौ भिक्षुओंको लेकर जहाँ वेणुवन था, वहाँ चले गये। तव कोकालिकने देवदत्तको उठाया- "आबुम देवदत्त ! उठो, मैने कहा न था-आबुम देवदन ! सारिपुत्र, मौद्गल्यायनका वियाग मत करो।" तब देवदनको वहीं मुन्वने गर्म खून निकल पळा ।. तब मा रि पुत्र, और मौद्ग ल्या य न जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। जाकर भगवान्को अभिवादन कर, एक ओर बैठे। एक ओर बैठे आयुष्मान् मारिपुत्रने भगवान्ने यह कहा-