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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५६५

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0 ४९६ ] ४-चुल्लवग्ग . [ ७६४१२ १८---क. "और फिर उपालि जो भिक्षु (१) अदुठुल्ल आपत्तियाँको दुल्ल कहता है। उस अधर्म-दृष्टिके भेदमें अधर्म दृष्टि रख, दृष्टि, भान्तिरुत्रि=भावको रख अनुश्रावण करता है, शलाका ग्रहण कराता है.--'यह धर्म है ० इसका व्याख्यान करो।' उपालि ! यह भी संघ-भेदक लाइलाज है।०१। (९) ० उस सन्देहवाले भेदमें संदेह युक्त हो।" 10 "भन्ते ! कौन सा संघ भेदक न अपायमें=न नरकम जानेवाला, न (उसमें) कल्प भर रहन- वाला, न अ-चिकित्स्य होता है ?" १-- "उपालि ! जोभिक्षु धर्मको धर्म कहता है। उस धर्म-दृष्टि-भेद (धर्मके सिद्धान्तके मतभेद) में धर्म-दृष्टि हो, दृष्टि क्षान्ति=रचि=भावको न पकळ, अनुश्रावण करता है, गलाका ग्रहण कराता है-'यह धर्म है. इसका व्याख्यान करो।' उपालि | यह संघ-भेदक न अपायमें न नरको जानेवाला, न (उसमें) कल्प भर रहनेवाला, न अ-चिकित्स्य होता है। ०१ । १८--"उपालि ! जो भिक्षु अदुठुल्ल-आपत्तिको अ-दुछुल्ल आपत्ति कहता है। उस धर्म- दृष्टिभेदमें धर्म-दृष्टि हो, दृष्टि=क्षान्ति रुचि=भावको न पकळ, अनुश्रावण करता है, गलाका ग्रहण कराता है-'यह धर्म है ० इसका व्याख्यान करो।' उपालि ! यह संघ-भेदक न अपायमें=न नरकमें जानेवाला, न (उसमें) कल्प भर रहनेवाला, न अ-चिकित्स्य होता है।" II संघभेदकक्खन्धक समाप्त ॥७|| १पृष्ठ ४९३-९४के २-१७ तकको भी ऐसे ही दुहराना चाहिये ।