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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५७६

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८१५।४ ] आचार्य-व्रत [ ५०७ पानी छूनेके शरावमें पानी नहीं छोळ डालना चाहिये। पानी छुनेके पायदानपर खळे हो ढांक लेना चाहिये। यदि पाखाना गंदा हो गया हो तो धो देना चाहिये। यदि अपलेखन (काष्ठ फेंकने) की टोकरी पूरी हो गई हो, तो अपलेपन काष्ठको 'क देना चाहिये । यदि वच्चकुटीमें उक्लाय हो, तो झाळू देना चाहिये । यदि परिभण्ड ०। यदि परिवेण उक्लाप हो तो परिवेणको झाळ देना चाहिये। यदि कोष्ठक गंदा हो, तो० लाळ देना चाहिये । यदि पानी छुनेके घळे में पानी न हो, तो....... ..(उसमें) पानी भर देना चाहिये। "भिक्षुओ! यह भिक्षुओंका वच्चकुटीका व्रत है, जैसे कि०।" 8 ५-शिष्य-उपाध्याय, अन्तेवासी-आचार्यके कर्तव्य (१) शिष्य-व्रत' उस समय शिष्य उपाध्यायके साथ ठीकसे वर्ताव न करते थे। अल्पेच्छ००।- "नो भिक्षुओ! गियोंका उपाध्यायोंके प्रति व्रत प्रजापित करते हैं, जैसे कि शिप्योंको उपा- ध्यायोंके प्रति वर्तना चाहिये। "भिक्षओ ! --शिष्यको उपाध्यायके साथ अच्छा वर्ताव करना चाहिये । "भिक्षुओ ! यह शिष्यका उपाध्यायके प्रति व्रत , जैसे कि०।" 9 (२) उपाध्याय-वत' उस समय (१) उपाध्याय गिप्योंके साथ अच्छा बर्ताव न करते थे। 'अल्पेच्छ ०।०-- "लो भिक्षुओ ! गिप्यकं प्रति उपाध्यायके व्रतको प्रजापित करता हूँ; जैसे कि उपाध्यायोंको गियों साथ वर्तना चाहिये। ० "भिक्षुओ ! यह उपाध्यायका मिष्यके प्रति व्रत है, जैसे कि०।" 10 द्वितीय भाणवार (समाप्त) ॥२॥ (३) अन्तेवासी-व्रत उरा रागय अन्तवानी (गिष्य) आचार्योंके साथ अच्छा बर्ताव न करते थे। अल्पेच्छ० भिध 10/--- "तो भिक्षुओ! आचार्य प्रति अन्तवासीक दनकी प्रजापित करता हूँ; जैसे कि अन्नेबासीको आनायक नाथ वर्तना चाहिये । "भिक्षुओ ! अन्तगानीको आचार्य के साथ अच्छा बर्नाब करना चाहिये । "शिक्षो! यह आचार्य प्रति अन्तवारी हत हैं; जैसे कि II (४) प्राचार्य-त्रत मननद आच अलंगनियों मगर अच्छा दिन करते थे। अच्छ० नि10/-- "तो नि' हामीले प्रति भवाय इनो प्रजापित करता है न कि आचार्ययो रिलो महादत (पट १०) । देखो मा ८ एट०)। देखो महादाण (पृप १०ः)। 'देडो महादसा " (पृष्ठ ११०) ।