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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५७७

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५०८ ] ४-चल्लवग्ग [ ८५४ अन्तेवासीके साथ वर्तना चाहिये । "भिक्षुओ! आचार्यको अन्तेवासीके माथ अच्छा बर्ताव करना चाहिये । "भिक्षुओ! यह शिप्यके प्रति आचार्यका व्रत है; जेने कि'।" 1 2 अष्टम वत्तकम्वन्धक समाप्त ||८|| १देखो महावग्ग १९२।१ (पृष्ठ १०२) । अन्तमें पाँच गाथायें हैं--जो व्रतको नहीं पूरा करता, वह शीलको नहीं पूरा करता । अशुद्धशील दुष्प्रज्ञ (पुरुष) चित्तकी एकाग्रताको नहीं प्राप्त होता ॥(१)॥ विक्षिप्त चित्त एकाग्रता रहित (पुरुष) ठीकसे धर्मको नहीं देखता । सद्धर्मको बिना देखे दुःखसे नहीं छूट सकता ॥(२) व्रतको पूरा करनेवाला शीलको भी पूरा करता है । विशुद्धशील प्रज्ञावान् (पुरुष) चित्तकी एकाग्रताको प्राप्त होता है । (३)॥ अ-विक्षिप्त चित्त एकाग्रता युक्त (पुरुष) ठीकसे धर्मको देवता है । सद्धर्म को देखकर वह दुःबसे छूट जाता है ।(४)॥ इसलिये चतुर जिन-पुत्र (बौद्ध) व्रतको पूरा करे । (यह) श्रेष्ठ बुद्धका उपदेश है उससे निर्वाणको प्राप्त होगा ॥(५)॥