पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५८७

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५१८ ] ४-चुल्लवग्ग [ १९३२ नहीं चाहिये। उपालि ! ० ऐसे पाँच प्रकार अविप्रतिसार धारण करना चाहिये ।" 29 ६--“भन्ते ! धर्मपूर्वक दोषारोप किये गये भिक्षुको कितने प्रकाग्ने विप्रतिसार धारण कराना चाहिये?" - "उपालि ! पाँच प्रकारचे विप्रतिनार धारण करना चाहिये--(१) समयसे आयुष्मान् पर दोपारोप किया गया है, असमयमे नहीं, नागज़ (=विप्रतिमार) नहीं होना चाहिये । (२) सत्यमेल असत्यसे नहीं० । (३) मधुरताकै माथ०, कठोरताके साथ नहीं । (८) मार्थक०, निरर्थक नहीं । (५) मैत्रीपूर्ण चित्तमे०, भीतर टेप रग्बकर नहीं० । उपालि ! ऐसे पांच प्रकारमे० । 30 ७-"भन्ते ! दोपारोप करनेवाले भिक्षुको दूसरेपर दोषारोप करनेकी इच्छा होनेपर कितनी बातोंको अपने भीतर मनमें करके दूसरेपर दोपागेप करना चाहिये ?" "उपालि ! पाँच वातोंको०--(१) कारुणिकता. (२) हितपिता, (३) अनुकम्पकता, (४) आपत्तिसे उद्धार होना, (५) विनय पुरस्मर होना। उपालि ! ऐसे पांच प्रकारले०।" 3I ८--"भन्ते ! दोपारोप किये गये भिक्षुको कितनी बातें (धर्म) (अपने भीतर) स्थापित करनी चाहिये ?" "उपालि! दोषारोप किये गये भिक्षुको सत्य और अकोप्य (=अटलपना) ये दो बातें (अपने भीतर) स्थापित करनी चाहिये।" 32 द्वितीय भाणवार (समाप्त) ॥२॥ नवाँ पातिमोक्खट्ठपनक्खन्धक समाप्त ॥६॥