पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५९१

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५२२ ] ४-चुल्लवग्ग [ १०१६ उपसम्पदा मिली है। भगवान्ने इस प्रकार भिक्षुओं द्वारा भिक्षुणियोंकी उपसम्पदाका विधान किया है।" तब आयुष्मान् आनन्द जहाँ भगवान् थे वहाँ गये। जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक ओर वैठे। एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्दने भगवान्गे यह कहा- "भन्ते ! महाप्रजापती गौतमी ऐसा कहती है-भन्ते आनन्द ! यह भिक्षुणियाँ मुझसे ऐसा कहती हैं--आर्याको उपसम्पदा नहीं है, हम सबको उपसम्पदा मिली है।" "आनन्द ! जिस समय महाप्रजापती गौतमीने आठ गुन-ध में ग्रहण किये, तभी उसे उपसम्पदा प्राप्त हो गई।" (४) भिक्षुणियांका भिक्षुओंको अभिवादन तव महाप्रजापती गौतमी जहाँ आयुप्मान् आनन्द थे, वहां जाकर० अभिवादनकर एक ओर खळी ० हो० यह वोली-- "भन्ते आनन्द ! मैं भगवान्से एक वर माँगती हूँ, अच्छा हो भन्ते ! भगवान् भिक्षुओं और भिक्षुणियोंमें (परस्पर) (उपसम्पदाके) वृद्धपनके अनुसार अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथ जोळने= सामीचि-कर्म (=यथोचित सत्कारादि) करनेकी अनुमति दे दें।" तव आयुष्मान् आनन्द० जाकर भगवान्को अभिवादन कर० एक ओर बैठे० भगवान्से यह बोले- "भन्ते ! महाप्रजापती गौतमी ऐसा कहती है-भन्ते आनन्द ! मैं भगवान्ने एक वर माँगती "आनन्द ! इसकी जगह नहीं, इसका अवकाश नहीं, कि तथागत स्त्रियों (=मातृप्राम) को अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथजोळने, सामीचि-कर्म करनेकी अनुमति दें। आनन्द ! यह तीथिक (=दूसरे मतवाले साधु) भी जिनका धर्म ठीकसे नहीं कहा गया है, वह भी स्त्रियोंको अभिवादन करनेकी अनुमति नहीं देते, तो भला कैसे तथागत स्त्रियोंको अभिवादन करनंकी अनुमति दे सकते हैं ?" तव भगवान्ने इसी संबंधमें इसी प्रकरणमें धार्मिक कथा कह, भिक्षुओंको संबोधित किया (१०) "भिक्षुओ! स्त्रियोंको अभिवादन, प्रत्युत्थान, हाथजोळना, सामीचि-कर्म (= यथो- चित सत्कारादि) नहीं करना चाहिये, जो करे उसे दुक्कटका दोप हो।" 3 (५) भिक्षुओं और भिक्षुणियोंके समान और भिन्न शिक्षापद तव महाप्रजापती गौतमी० जाकर० भगवान्को अभिवादनकर० एक ओर खळी (हो) वान्से यह बोली- "भन्ते ! जो शिक्षापद (=आचार-नियम) भिक्षुओं और भिक्षुणियोंके एकसे हैं, भन्ते ! उनके विषयमें हमें कैसे करना चाहिये?" "गौतमी ! जो शिक्षापद० एकसे हैं, उनका जैसे भिक्षु अभ्यास करते हैं, वैसेही तुम भी अभ्यास करो।" "भन्ते ! जो शिक्षापद भिक्षुओं और भिक्षुणियोंके पृथक् हैं, भन्ते ! उनके विषयमें हमें कैसे करना चाहिये ?" "गौतमी ! जो शिक्षापद० पृथक् है, विधानके अनुसार उनको सीखना (=अभ्यास करना) ०भग- चाहिये।" (६) धर्मका सार तव महाप्रजापती गौतमीने० जाकर० भगवान्से यह कहा-