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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५९२

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यह १०६२।२] प्रातिमोक्षकी आवृत्ति आदि [ ५२३ "भन्ते ! अच्छा हो (यदि) भगवान् संक्षेपसे धर्मका उपदेश करें, जिसे भगवान्से सुनकर, एकाकी उपकृष्ट, प्रमाद-रहित हो (मैं) आत्म-संयमकर विहार करूँ।" "गौ त मी ! जिन धर्मोको तू जाने कि, वह (धर्म) स-रागके लिये हैं, विरागके लिये नहीं। संयोगके लिये हैं, वि-सं यो ग (=वियोग-अलग होना) के लिये नहीं। जमा करनेके लिये हैं, विनाशके लिये नहीं। इच्छाओंको बढ़ानेके लिये हैं, इच्छाओंको कम करनेके लिये नहीं । असन्तोपके लिये हैं, सन्तोषके लिये नहीं। भीळके लिये हैं, एकान्तके लिये नहीं । अनुद्योगिताके लिये हैं, उद्योगिता (=वीर्या- रंभ) के लिये नहीं। दुर्भरता (=कठिनाई) के लिये हैं, सुभरताके लिये नहीं। तो तू गौतमी ! सोलहो आने (=ए कां से न) जान, कि न वह धर्म है, न विनय है, न शास्ता (बुद्ध) का शा स न (=उपदेश) है। "और गौतमी ! जिन धर्मोको तू जाने, कि वह विरागके लिये हैं, सरागके लिये नहीं । वियोग के लिये। उद्योगके लिये । विनाश० । इच्छाओंको अल्प करनेके लिये । सन्तोप के लिये । एकान्तके लिये । उद्योगके लिये । सु भ र ता (=आसानी) के लिये । तो तू गौतमी ! सोलहों आने जान, कि धर्म है, यह विनय है, यह शास्ताका शासन है।" ६२-प्रातिमोजकी आवृत्ति. दोष-प्रतिकार, संघ-कर्म, अधिकरण-शमन और विनय-वाचन (१) प्रातिमोक्ष' की आवृत्ति १–उस समय भिक्षुणियोंके प्रातिमोक्षका पाठ (=उद्देश) न होता था। भगवान्से यह वात कही- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, भिक्षुणी-प्रातिमोक्षके २ उद्देश करनेकी।” 4 २-तब भिक्षुओंको यह हुआ—किसे भिक्षुणी-प्रातिमोक्षका उद्देश करना चाहिये ? भगवान्से यह वात कही- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, भिक्षुओंको भिक्षुणियोंके (लिये) प्रातिमोक्षके उद्देश करनेकी।" ३-उस समय भिक्षु भिक्षुणियोंके आश्रम (=उपश्रय) में जाकर भिक्षुणियोंके प्रातिमोक्षका उद्देश करते थे। लोग हैरान होते थे—'यह इनकी जायायें (=भार्यायें) हैं, यह इनकी जारियाँ (=रखेलियाँ) हैं। अव यह इनके साथ मौज करेंगे।' भिक्षुओंने उन मनुष्योंके हैरान होनेको सुना। तब उन भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! भिक्षुओंको भिक्षुणियोंको प्रातिमोक्षका उद्देश नहीं करना चाहिये, दुक्कट० । भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, भिक्षुणियोंको भिक्षुणियोंके प्रातिमोक्षके उद्देश करनेकी।" 6 ४-भिक्षुणियाँ न जानती थीं, कैसे प्रातिमोक्षका उद्देश करना चाहिये। ०- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, भिक्षुओंसे भिक्षुणियोंको सीखनेकी-ऐसे प्रातिमोक्षका उद्देश करना चाहिये।" (२) दोपका प्रतिकार १-उस समय भिक्षुणियाँ आपत्तियों (=दोपों) का प्रतिकार नहीं करती थीं। ०- "भिक्षुओ! भिक्षुणियोंको आपत्तियोंका न-प्रतिकार नहीं करना चाहिये, ०दुक्कट ।"० । 8 २--भिक्षुणियाँ न जानती थीं, कि कैसे आपत्तिका प्रतिकार करना चाहिये ।०- 5 7 'देखो भिक्खुणीपातिमोक्ख (पृष्ठ ३९-७०) भी। देखो वहीं पृष्ठ ३९-७० ।