पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/६१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

! ११९३ ] आयुष्मान् पुराण [ ५४५ "आवुस आनन्द ! यह तूने बुरा किया (=दुक्कट), जो भगवान्को नहीं पूछा-'भन्ते ! कौनसे हैं वह क्षुद्र-अनुक्षुद्र शिक्षापद । अतः अब तू दुक्कटकी देगनाकर' ।" "भन्ते ! मैंने याद न होनेसे भगवान्को नहीं पूछा-'भन्ते ! कौनसे हैं । इसे मैं दुक्कट नहीं समझता । किन्तु आयुष्मानोंके ख्याल से देशना (=क्षमा-प्रार्थना) करता हूँ।" (३) आनन्दको कुछ और भूलें (१) "यह भी आवुस आनन्द ! तेरा दुष्कृत है, जो तूने भगवान्की वर्षागाटी (=वर्षाऋतुमें नहानेके कपळे ) को (पैरसे) दावकर सिया, इस दुष्कृतकी देशनाकर ।" 'भन्ते ! मैंने अगौरवके ज्यालये भगवान्की वर्षाकी लुंगीको आक्रमणकर नहीं सिया, इसे मैं दुष्कृत नहीं समझता; किन्तु आयुप्मानोंके ख्यालसे देशना (=क्षमा-प्रार्थना) करता है।" (२) "यह भी आवस आनन्द ! तेरा दुष्कृत है, जो तूने प्रथम भगवान्के शरीरको स्त्रीसे १ वन्दना करवाया, रोती हुई उन स्त्रियोंके आंसुओंसे भगवान्का शरीर लिप्त होगया, इस दुष्कृतकी देवना कर। "भन्ते ! वि (=अति)-कालमें न हो-इस (ग्याल) से मैंने भगवान्के शरीरको प्रथम स्त्रीले वन्दना करवाया, मैं उसे दुष्कृत नहीं समझता० ।" (३) "यह भी आवुम आनन्द ! तेरा दुप्कृत है, जो तूने भगवान्के उल्लसित होते समय भगवान्के उदार (=ोलारिक) अवभास करनेपर, भगवान्मे नहीं प्रार्थना की--'भन्ते ! वहुजन- हितार्थ बहुजन-सुखार्थ, लोकानुकंपार्थ, देव-मनुप्योंके अर्थ हित सुखके लिये भगवान्-कल्पभर ठहरें, सुगत कल्पभर ठहरें ।' इस दुप्कृतकी देशना कर ।" “मैंने भन्ते ! मारमे परि-उत्थित-चित्त (भ्रममें) होनेसे, भगवान्से प्रार्थना नहीं की ० । दुष्कृत नहीं समझता ०।" (४) “यह भी आवुस आनन्द ! तेरा दुष्कृत है, जो तूने तथागतके बतलाये धर्म (=धर्म- विनय ) में स्त्रियोंकी प्रव्रज्याके लिये उत्सुकता पैदा की। इस दुष्कृतकी देशना कर।" “भन्ने ! मैंने-'यह म हा प्रजा प ती गौ त मी भगवान्की मौसी, आपादिका=पोपिका, भीन्दायिका है, जननीके मरनेपर स्तन पिलाया' (ख्यालकर) तथागत-प्रवेदित धर्ममें स्त्रियोंकी प्रव्रज्याके लिये उन्मुकता पैदा की । में इसे दुष्कृत नहीं ममझता, किन्तु० ।" (३-आयुष्मान् पुराणका संगीति-पाठकी पाबन्दीसे इन्कार उस समय पाँच मौ भिक्षुओंके महाभिक्षु-संघके साथ आयुप्माम् पुराण दक्षिणागिरि में चारिका कर रहे थे। आयुष्मान् पु ग ण स्थविर-भिक्षओंके धर्म और विनयके संगायन समाप्त होजानेपर, दक्षिणा गिरि में इच्छानुसार विहरकर, जहाँ रा ज गृह में कलंदक-निवापका वेणुवन था, जहाँ पर ग्थविर भिक्षु थे, वहाँ गये । जाकर स्थविर भिक्षुओंके साथ प्रतिसंमोदनकर, एक ओर बैठे । एक और बैठे हुये आयुष्मान् पुराणको स्थविर भिक्षुओंने कहा- "आवुम पुराण ! स्थविरोंने धर्म और विनयका संगायन किया है। आओ तुम (भी) - नंगीतियो (मानो)।" "निर्वाणक समय (देखो बुट्टचर्या पृष्ठ ५३९) । २ राजगिरके दक्खिनवाला पहाळी प्रदेश ।