पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/९०

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६२।१७ ] २-संघादिसेस [ ४७ आर्या अपनेको अवचनीया ( दूसरोंका उपदेश न सुनने वाली ) बनावें । आर्या अपनेको वचनीया हो वनावें । आर्या भी भिक्षुणियोंको उचित बात कहें, भिक्षुणियाँ भी आर्याको उचित बात कहें । परस्पर कहने कहाने, परस्पर उत्साह दिलानेसे ही भगवान्की यह मंडली ( एक दूसरेसे ) संबद्ध है। भिक्षुणियोंके ऐसा कहनेपर भी ० यह उसके लिये अच्छा है। यदि न छोड़े तो । (१२) कुलोंका बिगाड़ना १७-कोई भिक्षुणी किसी गाँव या कस्बेमें कुलदूषिका और दुराचारिणी होकर रहती है । उसके दुराचार देखे भी जाते हैं, सुने भो जाते हैं । कुलोंको उसने दूपित किया है, यह देखा भी जाता है, सुना भी जाता है । तो दूसरी भिक्षुणियोंको उस भिक्षुणीसे यह कहना चाहिये-"आर्या कुलदूषिका और दुराचारिणी हैं। आर्याके दुराचार देखे भी जाते हैं, सुने भी जाते हैं । आर्याने कुलोंको दूषित किया है, यह देखा भी जाता है, सुना भी जाता है । इस निवास ( स्थान )से आर्या चली जायँ, यहाँ (आपका) रहना ठीक नहीं है।" भिक्षुणियोंके ऐसा कहनेपर यदि वह भिक्षुणी ऐसा बोले-"भिक्षुणियाँ रागके पीछे चलनेवाली हैं; द्वेषके पोछे चलनेवाली हैं, मोहके पोछे चलनेवाली हैं, भयके पीछे चलने वाली हैं । उन्हीं अपराधोंके कारण किसी किसोको दूर करती हैं और किसी किसोको दूर नहीं करतीं ।” तो भिक्षुणियोंको उस भिक्षुणीसे यह कहना चाहिये-"मत आर्या ऐसा कहें-भिक्षुणियाँ रागके पीछे चलनेवाली नहीं हैं, द्वेषके पीछे चलनेवाली नहीं हैं, मोहके पीछे चलनेवाली नहीं हैं, भयके पीछे चलनेवाली नहीं हैं। आर्या कुलदूषिका और दुराचारिणी हैं । आर्याके दुराचार देखे भी जाते हैं, सुने भी जाते हैं । आर्याने कुलोंको दूपित किया है, यह देखा भी जाता है, सुना भी जाता है । इस निवास ( स्थान )से आर्या चली जायँ । यहाँ रहना ठीक नहीं है भिक्षुणियों द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी यदि ० । यदि न 1 श्रार्यायो ! यह सत्रह संघादिसेस कह दिये गये । नव प्रथम (वारहीमें) दोप (गिने जाने ) वाल और पाठ तीन वार तक (दोहरानेपर); इनमेंसे यदि किसी एक अपराधको भिक्षुणी वारे तो वह भिजणी, ( भिक्षु-भिक्षुणी ) दोनों संघोंमें पक्ष भर मानत्व' करे । मानत्व पूरा हो जानेपर जहाँ वीस भिक्षुणियोंवाला भिक्षुणी-संघ हो उसके पास जावे । यदि वीस भिणियों से एक ( भो ) कम वाला भिक्षुणी-संघ हो और वह भिक्षुणीको (अपराध ) मुक्त करें तो वह भिक्षुणी मुक्त नहीं होती और वह भिक्षुणियाँ निंदनीय हैं। यह यहाँपर उचित ( क्रिया ) है। भार्यानोंसे पृछती हूँ, क्या ( श्राप ) इनसे शुद्ध हैं ? दूसरी वार भी पूछती हूँ- चया हद्ध हैं ? तीसरी बार भी पूछती हूँ-क्या शुद्ध हैं ? आर्या लोग शुद्ध हैं, इसीलिये चुप है-ऐसा मैं इसे धारण करती हूँ। संघादिसेस समाप्न ॥२॥ 1 देखो पराग पारिवानिक स्कंधक २६६, ३.