को पकड़कर मत खींचो। मूर्खता की दूसरी बात यह है कि
यदि प्रत्येक का आत्मा पर से विश्वास उठ जायगा, तो धर्म-
कर्म सव रसातल चला जायगा; मनुष्यों के लिये कहीं ठिकाना
न रहेगा। जान पड़ता है कि मानों सब लोग मनुष्य जाति के
लिये सदा से प्राण ही दे रहे हैं! ईश्वर तुम्हारा भला करे। यदि
सब देशों में दो दो सौ स्त्री-पुरुष भी ऐसे निकल आते जो मनुष्य
जाति के लिये सचमुच भलाई करना चाहते होते, तो पाँच दिन
में करोड़ों ऐसे मनुष्य तैयार हो जाते। यह हम जानते हैं कि
हम कैसे मनुष्य जाति के लिये प्राण देते हैं। यह केवल लंबी
चौड़ी बातें हैं, और कुछ नहीं। संसार का इतिहास साक्षी दे
रहा है कि जिन लोगों ने अपने छोटे व्यक्तित्व का ध्यान किया है,
वे ही मनुष्य जाति के सच्चे हितैषी हो गए हैं। और जितना ही
अधिक लोग अपने व्यक्तता का ध्यान करते हैं, उतना ही वे
कम परोपकार कर सकते हैं। एक परार्थ है और दूसरा स्वार्थ
है। छोटे से छोटे विषय-भोग में फँसे रहना और उसके लिये
बार बार चेष्टा करते रहना ही स्वार्थ है। यह सत्य की इच्छा से
उत्पन्न नहीं होता; यह दूसरों पर अनुकंपा के कारण नहीं है;
इसका उद्भव मनुष्य की आत्मा में केवल स्वार्थ से होता
है―इस रूप में कि ‘मैं सब कुछ लूँगा। मुझे और किसी की
चिंता नहीं है।” मुझे तो ऐसा ही जान पड़ रहा है। मैं तो
संसार में ऐसे धर्मात्माओं को अधिक देखना चाहता हूँ जो
प्राचीन ऋषियों और आचार्य्यों के समान हों, जो किसी एक
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