पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१२३

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के ज्ञापक हों। मान लीजिए कि एक मनुष्य सूर्य्य की ओर जा रहा है और ज्यों ही वह आगे जाता है, सूर्य्य की एक एक प्रतिकृति स्थान स्थान से लेता जाता है। वह आकर सूर्य्य की बहुत सी प्रतिकृतियाँ हमारे सामने रख देता है। हम देखते हैं कि कोई दो एक सी नहीं हैं। पर यह कौन कहेगा कि यह सूर्य्य की प्रतिकृति नहीं है जो भिन्न स्थान से ली गई है। इसी गिरजे की चार प्रतिकृतियाँ भिन्न भिन्न कोनों से लीजिए; वे कितनी विभिन्न देख पड़ेंगी। पर वे सब इसी गिरजे की हैं। इसी प्रकार हमने सत्य को भिन्न भिन्न स्थानों से देखा है। यह अंतर हमारे जन्म, शिक्षा और संसर्ग आदि के कारण है। हम सब सत्य को देखते हैं। अवस्थाओं या परिस्थितियों के अनुसार हम उसे ग्रहण करते हैं। हम उस पर अपने अंतःकरण का रंग देते हैं, अपनी बुद्धि के अनुसार उसे सम- झते हैं और अपने मन में उसे धारण करते हैं। हम सत्य को उतना ही जान पाते हैं जितना हमसे संबंध है, जितना हम उसके पाने के योग्य हैं। इसी से मनुष्य मनुष्य में भेद पड़ता है और इसी से कभी कभी विरुद्ध विचार भी उत्पन्न होते हैं; पर हम सब उसी महान् व्यापक सत्य के साथ संबद्ध हैं।

मेरा अनुमान है कि ये सब भिन्न भिन्न धर्म ईश्वर की नीति में भिन्न शक्तियाँ हैं जो मनुष्य की भलाई के लिये काम कर रही हैं। इनमें से एक भी नष्ट नहीं हो सकती और न किसी का नाश है। जैसे आप प्रकृति की किसी शक्ति का नाश नहीं