लिये स्थान हैं। भिन्न भिन्न विचारों और भिन्न भिन्न रीतियों का होना आवश्यक है। यदि कभी कोई आदर्श धर्म होनेवाला है, तो उसे विस्तृत होना चाहिए; उसमें इतना अवकाश होना आवश्यक है कि सब विचारवालों को उसमें अनुकूल स्थान मिल सके। उसमें दार्शनिकों को दर्शन की शक्ति मिल सके, उपासकों के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो, कर्मकांडियों को उचित क्रियाकलाप मिले, पूजा करनेवालों को उचित प्रतीक मिले, और कवियों के लिये अपनी प्रतिभा दिखलाने की सामग्री रहे; और जिसे जो चाहिए, उसमें सब मिल सके। ऐसा विस्तृत धर्म बनाने के लिये हमें उस समय में जाना पड़ेगा जब सारे धर्मों का आरंभ हुआ था और उनकी सब बातों को एकीभूत करना पड़ेगा।
हमारा मूल मंत्र अन्वय होना चाहिए, व्यतिरेक नहीं। “गंगा गए गंगानाथ, यमुना गए यमुनाथ” न करना चाहिए। हाँ हाँ करना बुरी बात है। मैं इसे नहीं मानता। मैं तो अन्वय करने का पक्षपाती हूँ। मैं हाँ में हाँ क्यों मिलाऊँ? इसका तो अभिप्राय यही है कि मैं समझता हूँ कि आप भ्रम में हैं, और मैं आपको उसी में रहने देना चाहता हूँ। क्या यह अनुचित नहीं है कि हम और आप एक दूसरे को भ्रम में पड़ा रहने दें? मैं सभी प्राचीन धर्मों को मानता हूँ और सब का आदर करता हूँ। मैं तो ईश्वर को सबके साथ जिस रूप में वे पूजें, पूजता हूँ। मैं मुसलमानों के साथ मसजिद में जाऊँगा, ईसाइयों के
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