पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १५० ]


मिल सकता है। दूसरों को सहायता देने की बात दूर रही, यदि उनसे बन पड़े तो दूसरों का नाश करने का वे भले ही उद्योग करेंगे। और सबसे निकृष्ट बात तो यह है कि वे दूसरों की सहायता भले ही न करें, पर अपने सच्चे प्रतीक को भी तो वे नहीं मानते। फिर ऐसे दार्शनिक लोग भी मिलते हैं जो भारत- वर्ष और पूर्व के महत्व का राग अलापते रहते हैं और पचास पचास मात्राओं के बड़े बड़े आध्यात्मिक शब्द झाड़ा करते हैं। पर यदि मुझ सा कोई सामान्य पुरुष उनके पास पहुँच जाता है और उनसे यह कह बैठता है कि क्या आप मुझे अध्यात्म विद्या सिखा सकते हैं, तो वे हँस देते हैं और कहने लगते हैं कि ‘आप मुझसे ज्ञान में बहुत नीची कोटि में हैं; अध्यात्म विद्या आपकी समझ में भला कैसे कावेगी?’ यही ऊँचे ऊँचे दार्श- निक हैं। वे आपको केवल रास्ता दिखला देते हैं। इनके अति- रिक्त गूढ़ तत्वान्वेषी लोग हैं जो भिन्न भिन्न लोकों के पदार्थौं की बातें करते फिरते हैं; चित्त को कितनी वृत्तियाँ हैं, मानसिक शक्ति के बल से क्या क्या सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, इत्यादि इत्यादि कहा करते हैं। पर यदि कोई सामान्य मनुष्य उनके पास पहुँच जाता है और उनसे कहता है कि आप मुझे कुछ सिद्धियाँ दिखलाइए, जिन्हें मैं भी करूँ, मैं तो उतनी ध्यान की बीतें जानता नहीं; क्या आप मुझे मेरे योग्य कुछ बतला सकते हैं? तो वे हँसेंगे और कहेंगे कि ‘इस मूर्ख को देखो। इतना बड़ा हुआ पर कुछ जानता सुनता नहीं। इसका तो जन्म ही