पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१५७

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अकारथ गया।’ यही बातें सारे संसार में हो रही हैं। मुझसे हो सके तो ऐसे संप्रदायों के अधिकारियों को पकड़कर एक कोठरी में बंद कर दूँँ और उनके हँसते हुए रूप का चित्र खींचूँ।

यही आजकल के धर्म की अवस्था है। यही संसार की चाल है। मैं जिस धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ, वह ऐसा धर्म है जिसे सब मान सकते हैं। वह ऐसा होगा जिसमें दर्शन के भाव, वैकारिक भाव, गूढ तत्व और कर्म की सब बातें समान रूप से रहेंगी। यदि कालेजों के अध्यापक, वैज्ञानिक और भौतिक विद्याविशारद आवें तो उन्हें तर्क और युक्ति की बातें उसमें मिलें। उनको जो आवश्यकता हो, उसमें से ले लें। उसमें उससे भी अधिक बातें रहें जिसके आगे उनकी पहुँच बिना युक्ति त्यागे न हो। वे कहेंगे कि ईश्वर और मोक्ष की बातें युक्तिविरुद्ध हैं, उन्हें छोड़ दो। मैं कहूँगा कि “भाई वैज्ञानिक, आपका यह शरीर तो बहुत बड़ी पक्षपात की वस्तु है; इसे छोड़ दीजिए। न खाना खाइए, न पठन पाठन का काम कीजिए। अपने शरीर को त्यागिए। यदि त्याग नहीं सकते तो आधी घड़ी बकवास कीजिए, बैठ जाइए।’ क्योंकि धर्म ऐसा होना चाहिए जो यह बतला सके कि उस दर्शन की बातों को जो विश्व की एकता की शिक्षा देता है, कैसे साक्षात् किया जाय और कैसे जाना जाय कि इस विश्व में एक ही सत्ता है। यदि गूढ़ तत्वान्वेषी आ जायँ तों हमें उनका खागत करके