पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १५२ ]

अभ्यास के लिये मानसिक विज्ञान देना चाहिए और उसका उनके सामने प्रतिपादन करना चाहिए; और फिर यदि वैका- रिक लोग आ जायँ तो हमें उनके साथ ईश्वर-प्रेम का प्याला पीकर उन्मत्त हो जाना चाहिए। यदि उत्साही काम करनेवाले आ जायँ तो हमें उनके साथ मिलकर जहाँ तक हममें शक्ति है, काम करना चाहिए। इन सब बातों का जब मेल होगा, तब वह विश्वव्यापी धर्म होगा वा उसकी कुछ बरावरी का होगा। ईश्वर करे कि सब लोग ऐसे हो जायँ कि उनके अंतःकरण में दर्शन, तंत्र, विकार और कर्म के सारे भाव समरूप से भर जायँ। यही आदर्श है, यही मेरी समझ में आप्त- पुरुष का आदर्श है। जिसमें इनमें से एक वा दो ही बातें हों, मैं उसे अधूरा समझता हूँ। संसार में ऐसे ही अधूरे लोग भरे पड़े हैं जिन्हें केवल उसी मार्ग का ज्ञान है, जिससे वे जा रहे हैं। उसको छोड़कर उन्हें दूसरे सब मार्ग भयानक जान पड़ते हैं। इन चारों बातों पर सम भाव से ध्यान रखना ही मेरे धर्म का आदर्श है। इस धर्म की प्राप्ति उसीसे हो सकती है जिसे भारतवर्ष में योग कहते हैं, जिसका अर्थ है मिलाना। काम करनेवाले के लिये मनुष्यों का मनुष्य जाति मात्र में योग है। तांत्रिकों और गूढ़ तत्वान्वेषियों के लिये आत्मा और परमात्मा का योग है। प्रेमी जन के लिये प्रेमी और प्रेमपात्र का योग है; दार्शनिकों के लिये सत्ता मात्र का योग है। यही योग का अर्थ है। यह संस्कृत का शब्द है और इन चार