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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१६०

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करता है। मनुष्यों में देखिए तो वही बहुत उन्नत हो जाता है और तर्क का रूप धारण कर लेता है। यहाँ उसका कार्य्यक्षेत्र भी बढ़ जाता है। पर बुद्धि भी पर्याप्त नहीं है। तर्क थोढ़ी दूर चलता है, पर फिर रह जाता है, आगे नहीं बढ़ सकता। यदि आप उसे ठेलकर आगे बढ़ावें, तो इसका परिणाम यह होता है कि आप घबरा जाते हैं और फिर तर्क-बुद्धि आप उलटी बन जाती है। तर्क एक वृत्त में काम करता है। उदाहरण के लिये द्रव्य और शक्ति को ले लीजिए। हमारे प्रत्यक्ष के आधार ही यही दोनों हैं। द्रव्य है क्या? जिस पर शक्ति अपना काम करती है। और शक्ति क्या है? जो द्रव्य पर काम करती है।

आपने इस उलझन को देखा। इसी को नैयायिक अन्योन्या- श्रय दोष कहते हैं। यदि एक ठीक है तो दूसरा भी ठीक है; और यदि दूसरा ठीक है तो पहला भी ठीक है। एक की सिद्धि दूसरे की सिद्धि पर और दूसरे की सिद्धि पहले की सिद्धि पर अव- लंबित है। आप देखिए,अब तर्क के आगे काठ पड़ गया। इसके आगे तर्क की गति ही नहीं है। फिर भी वह सदा अनंत के लोक में जो इससे कहीं परे है, घुसने के लिये आतुर है। यह संसार, यह विश्व जिसे हम अपनी इंद्रियों द्वारा देखते-सुनते और अपने मन द्वारा समझते हैं, उस अनंत का एक अणुमात्र है, यदि वह बोध का विषय हो; और इसी संकुचित क्षेत्र के भीतर चेतनता के जाल में वेष्ठित हमारे तर्क विचार को काम करना पड़ता है। वह इसके आगे जा कैसे सकता है। अतः हमें