पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१६३

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ही प्राप्त करते हैं। आप मेरी बातें सुन रहे हैं। यदि आपको मेरी बातें रुचती हैं तो आपके चित्त की वृत्ति उन पर एकाग्र हो जाती है; और आप जितना ही अपने चित्त को एकाग्र करेंगे, उतना ही आपको मेरा अभिप्राय समझ में आवेगा जिसे मैं आप पर व्यक्त करना चाहता हूँ। जितनी ही अधिक आप में अपने चित्त की वृत्तियों को एकाग्र करने की शक्ति होगी, उतना ही आपको अधिक ज्ञान प्राप्त होगा। कारण यह है कि ज्ञान के प्राप्त करने का यही एक मात्र साधन है। यहाँ तक कि जूते पर स्याही करनेवाला यदि अपने चिन्त को एकाग्र कर ले, तो वह अच्छी स्याही करेगा; यदि रसोइए के चित्त की वृत्ति एकाग्र हो जाय तो वह पाक अच्छा करेगा। धनोपार्जन में, ईश्वरोपासना में, जितना ही अधिक चित्त एकाग्र होता है, उतना ही अच्छा फल मिलता है। यही एक मात्र मूल मंत्र है जिससे प्रकृति का कपाट खुल जाता है और प्रकाश की लहर भर जाती है। यही चित्त की एकाग्रता ज्ञान की निधि की एक मात्र कुंजी है। राजयोग के शास्त्रों में केवल इसी का वर्णन है वर्तमान दशा में हमारे शरीर (इंद्रियाँ) अति चंचल हैं और हमारे मन की शक्तियाँ सैंकड़ों बातों पर बँटी हुई रहती हैं। ज्यों ही हम अपने चित्त को एकाग्र करने लगते हैं और उसकी वृत्तियों को ज्ञान के पदार्थ पर लगाते हैं, त्यों ही हमारे मस्तिष्क में सहस्रों प्रकार की प्रवृत्तियाँ अचानक घुस आती हैं और मन में सहस्रों विचार उठने लगते हैं और विघ्न पड़ जाता है।