राजयोग में इन्हीं बातों का वर्णन है कि इन अंतरायों को कैसे निवृत्त किया जाय और चित्त की एकाग्रता का संपादन कैसे हो, वह वश में कैसे आवे।
अब कर्मयोग को लीजिए जिसमें कर्मों के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होती है। यह स्पष्ट है कि समाज में बहुत से लोग हैं जो किसी न किसी प्रकार की प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न हुए हैं, जिनके चित्त की वृत्ति विचार पर नहीं जमती और जिन्हें केवल कर्मों के करने की ही धुन रहती है। इस प्रकार के जीवन के लिये भी कोई शास्त्र अवश्य होगा। हममें से सब लोग किसी न किसी काम में लगे रहते हैं; पर हममें अधिकांश की शक्तियों का अधिक अंश इस कारण नष्ट हो जाता है कि हमें कर्म के रहस्य का ज्ञान नहीं होता। कर्मयोग से हमें इस रहस्य का ज्ञान होता है। हमें इसका बोध हो जाता है कि किस स्थान पर और किस ढंग से काम करना चाहिए। उन कामों में जो हमें करने हैं, हम अपनी शक्तियों के अधिक अंश को किस प्रकार काम में लावें कि हमें अधिक लाभ हो। पर इस रहस्य के साथ ही साथ हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए जिससे कर्म करने में हमें दुःख होता है। सब दुःखों का कारण राग है। मैं काम करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं मनुष्यों की भलाई करूँ। पर सौ में निन्नानबे यह देखा जाता है कि जिन लोगों की मैं भलाई करता हूँ, जिनको मैं सहायता देता हूँ, वे कृतघ्न निकल जाते हैं और मेरी बुराई