सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १७० ]

यह सब कुछ ठीक हो सकता है; पर यह ज्ञान अनंत का ज्ञान, अब भी अज्ञान रूप से बना है। यह बात नहीं है कि हम उसे भूल गए हैं, अपनी अनंत प्रकृति हमें स्मरण नहीं। भला कोई उसे कभी भूल भी सकता है? भला कौन इसे सोचेगा कि मेरा नाश हो सकता है? कौन यह सोचेगा कि मैं मर जाऊँ? कोई नहीं। हमारा अनंत से जो संबंध है, वह गुप्त रूप से जाग्रत है। एक प्रकार से हमें अपने सच्चे स्वरूप का बोध नहीं रहा है, इसी कारण हम दुःखी हो रहे हैं।

नित्य के व्यवहार में हमें छोटी छोटी बातों से दुःख होता है। हम तुच्छ पदार्थों के दास बने रहते हैं। दुःख हमें इस- लिये होता है कि हम अपने को परिमित और छोटा समझते हैं। और फिर भी यह समझना कितना कठिन है कि हम अनंत हैं। इन सब दुःखों और कठिनाइयों में साधारण बातों से हमारी शांति में भंग पड़ जाता है। हमारे लिये अपने को अनंत मानने में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है। और सच्ची बात तो यह है कि चाहे ज्ञात रूप में हो वा अज्ञात रूप में, हम सब उसी अनंत की जिज्ञासा में लगे हैं; हम सदा मुक्ति प्राप्त करने के उद्योग में निरत हैं।

संसार में मनुष्यों की कभी कोई ऐसी जाति ही नहीं थी जिसका कोई धर्म न रहा हो और जो किसी देवता की पूजा न करती रही हो। इसकी कोई बात नहीं कि वे देवता कहीं थे वा नहीं। पर यह तो सोचिए कि इस आध्यात्मिक आलोक