पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १७८ ]


नहीं है; कोई कर्म नहीं है। कर्म का अधिष्ठाता मैं हूँ। मैं सदा से हूँ और सदा रहूँगा।

मुझे कभी भौतिक वा सांसारिक पदार्थों में सच्चा सुख नहीं मिला। स्त्री, पुरुष, पुत्र, कलत्रादि में मुझे राग नहीं है, क्योंकि मैं नील आकाश की भाँति अनंत हूँ। नाना वर्ण के बादल आते हैं और क्षण भर में होकर निकल जाते हैं। वे हटे कि फिर वही निर्विकार नील आकाश है। सुख-दुःख, शुभ- अशुभ, मेरे ऊपर क्षण भर के लिये भले ही आकर आवरण डालें, पर मैं फिर भी अचल हूँ। वे चले जाते हैं क्योंकि वे विकारवान् हैं। मैं प्रकाशमान् हूँ क्योंकि मैं निर्विकार हूँ। दुःख आते हैं; मैं जानता हूँ कि वे परिमित हैं, अतः वे जाते भी रहते हैं। यदि बुराई आती है तो मैं जानता हूँ कि वह परिमित है, चली जायगी। मैं अकेला अनंत हूँ, निर्लेप हूँ; क्योंकि मैं अनंत, शाश्वत और निर्विकार आत्मा हूँ। हमारे कवियों का यही कथन है।

मैं वह प्याला हूँ जिसके पीने से सब अमर और सब निर्वि- कार हो जायँगे। डरो मत। इसे मत मानो कि हम परिमित हैं, हम बुरे हैं, हम मर जायँगे। यह सत्य नहीं है।

‘श्रोतव्योमन्तव्यो निदध्यासितव्यः’। हाथ कर्म करे तो मन में सोऽहम् सोऽहम् जपते रहो। इसी को सोचो, इसी को स्वप्न में देखो, जब तक कि यह तुम्हारी अस्थि और मांस में प्रवेश न कर जाय, जब तक कि लघुता, दुर्बलता, दुःख और बुराई का