मांस खाता हूँ तब मैं समझता हूँ कि मैं अन्याय करता हूँ। यहाँ तक कि यदि मुझे किसी विशेष अवस्था में पड़कर मांस खाना ही पड़े तो मैं यही समझूँगा कि यह निर्दयता का कर्म है। मैं अपना आदर्श अपनी आवश्यकता व वास्तविकता के अनुसार न बनाऊँगा और अपने निर्बलता के व्यवहार के लिये इस प्रकार की बातें कभी न बनाऊँगा। आदर्श यह नहीं है कि आप मांस खायँ वा किसी प्राणी को दुःख दें, क्योंकि सब प्राणी हमारे भाई हैं। यदि आप उन्हें अपना भाई समझ सकें, तो आप समझ जाइए कि आत्मा के भ्रातृत्व की ओर बढ़े―मनुष्य के भ्रातृत्व की तो बात ही क्या है? वह तो बच्चों के खेल की बात है। अब प्रायः यह जान पड़ेगा कि बहुतों को यह बात नहीं रुचेंगी; पर यह उन्हें यही शिक्षा देती है कि आवश्यकता वा वास्तविकता को छोड़ो और आदर्श की ओर पैर बढ़ाओ। यदि आप किसी ऐसे सिद्धांत को उनके सामने रखें जो उनके वर्तमान आचार-व्यवहार के अनुकूल पड़े, तो वे उसे बहुत ही कर्मण्य वा व्यावहारिक बतलावेंगे।
मनुष्य में एक विशेषता है कि वह प्राचीन रीति-नीति को नहीं छोड़तो, वह उससे तनिक भी आगे खिसकना नहीं चाहता। मनुष्यों की दशा ठीक वैसी ही है जैसी उस मनुष्य की होती है जो हिम में ठिठुरकर हिममय हो रहा हो। उसे नींद आती है और वह सोना चाहता है। यदि आप उसे वहाँ से खींचकर हटाना चाहें तो वह यही कहता है कि मुझे यहीं